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उस अधिकार को पाने के लिए
जो तुम्हारा नहीं है;
दूसरे का अधिकार छीनने के लिए
जो तुम्हारे वश में नहीं है
बोलते रहा, बोलते रहो।
बोलत-बोलते
जब ज़बान थक जाये
तो गाली देना शुरु कर दो।
गाली देते-देते
जब हिम्मत चुक जाये
तब हाथापाई पर उतर आओ।
और जब लगे
कि हाथापाई में
सामने वाला भारी पड़ गया है
तो दो कदम पीछे हटकर
हाथ झाड़ लो -
- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें
- आओ, समझौता कर लें
फिर समझौते की शतें
उसके सिर पर लाद दो।
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
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भटकन है
दर्द बहुत है पर क्यों बतलाएँ तुमको
प्रश्न बहुत हैं पर कौन सुलझाए उनको
बात करते हैं तब उलाहने ही मिलते हैं
भटकन है पर कोई न राह दिखाए हमको
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खामोशियां भी बोलती है
नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।
मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।
कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।
मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।
मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।
इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।
ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।
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आवाज़ ऊँची कर
आवाज़ ऊँची कर
चिल्ला मत।
बात साफ़ कर
शोर मचा मत।
अपनी बात कह
दूसरे की दबा मत।
कौन है गूँगा
कौन है बहरा
मुझे सुना मत।
सबकी आवाज़ें
जब साथ बोलेंगीं
तब कान फ़टेंगें
मुझे बता मत।
धरा की बातें
अकारण
आकाश पर उड़ा मत।
जीने का अंदाज़ बदल
बेवजह अकड़
दिखा मत।
मिलजुलकर बात करें
तू बीच में
अपनी टाँग अड़ा मत।
मिल-बैठकर खाते हैं
गाते हैं
ढोल बजाते हैं
तू अब नखरे दिखा मत।
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कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।
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जो रीत गया वह बीत गया
चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो
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सपने
अजीब सी होती हैं
ये रातें भी।
कभी जागते बीतती हैं
तो कभी सोते।
कभी सपने आते हैं
तो कभी
सपने डराकर
जगा जाते हैं।
कहते हैं
सिरहाने पानी ढककर
रख दें
तो बुरे सपने नहीं आते।
पर सपनों को
पानी नहीं दिखता।
उन्हें
आना है
तो आ ही जाते हैं।
कभी सोते-सोते
जगा जाते हैं
कभी पूरी-पूरी रात जगाकर
प्रात होते ही
सुला जाते हैं।
एक और अलग-सी बात
दिन हो या रात
अंधेरे में आंखें
बन्द हो ही जाती हैं।
और मुश्किल यह
कि जो देखना होता है
फिर भी देख ही लिया जाता है
क्योंकि
देखते तो हम
मन की आंखों से हैं
अंधेरे और रोशनी
दिन और रात को इससे क्या।
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सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
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मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
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फूलों संग महक रही धरा
पत्तों पर भंवरे, कभी तितली बैठी देखो पंख पसारे।
धूप सेंकती, भोजन करती, चिड़िया देखो कैसे पुकारे।
सूखे पत्ते झर जायेंगे, फिर नव किसलय आयेंगें,
फूलों संग महक रही धरा, बरसीं बूंदें कण-कण निखारे।