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उस अधिकार को पाने के लिए
जो तुम्हारा नहीं है;
दूसरे का अधिकार छीनने के लिए
जो तुम्हारे वश में नहीं है
बोलते रहा, बोलते रहो।
बोलत-बोलते
जब ज़बान थक जाये
तो गाली देना शुरु कर दो।
गाली देते-देते
जब हिम्मत चुक जाये
तब हाथापाई पर उतर आओ।
और जब लगे
कि हाथापाई में
सामने वाला भारी पड़ गया है
तो दो कदम पीछे हटकर
हाथ झाड़ लो -
- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें
- आओ, समझौता कर लें
फिर समझौते की शतें
उसके सिर पर लाद दो।
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सांझ-सवेरे
रंगों से आकाश सजा है सांझ-सवेरे।
मन में इक आस बनी है सांझ-सवेरे।
सूरज जाता है,चंदा आता है, संग तारे]
भावों का ऐसा ही संगम है सांझ-सवेरे।
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रूठकर बैठी हूं
रूठकर बैठी हूं
कभी तो मनाने आओ।
आज मैं नहीं,
तुम खाना बनाओ।
फिर चलेंगे सिनेमा
वहां पापकार्न खिलाओ।
चप्पल टूट गई है मेरी
मैंचिंग सैंडल दिलवाओ।
चलो, इसी बात पर आज
आफ़िस से छुट्टी मनाओ।
अरे!
मत डरो,
कि काम के लिए कह दिया,
चलो फिर,
बस आज बाहर खाना खिलाओ।
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जिन्दगी की आग में सिंकी मां
बहुत याद आती हैं
मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां
आम की फांक के साथ
अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी
स्कूल के लिए।
और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से
हम दिन भर मस्त रहते थे।
आम की फांक को तब तक चूसते थे
जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।
चूल्हे की आग में तपी रोटियां
एक बेनामी सी दाल-सब्जी
अजब-गजब स्वाद वाली
कटोरियां भर-भर पी जाते थे
आग में भुने आलू-कचालू
नमक के साथ निगल जाते थे।
चूल्हे को घेरकर बैठे
बतियाते, हंसते, लड़ते,
झीना-झपटी करते।
अपनी थाली से ज्यादा स्वाद
दूसरे की थाली में आता था।
रात की बची रोटियों का करारापन
चाय के प्याले के साथ।
और तड़का भात नाश्ते में
खट्टी-मीठी चटनियां
गुड़-शक्कर का मीठा
चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।
जिन्दगी की आग में सिंकी मां,
और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली
संघर्ष की पौष्टिकता
आज भी भीतर ज्वलन्त है।
छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी
तरसती हूं इस स्वाद के लिए।
बनाने की कोशिश करती हूं
पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।
अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद
तो मुझे ज़रूर न्यौता देना
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जीवन संवर जायेगा
जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
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अठखेलियां करते बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा
शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
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अपने मन की सुन
अपने-आपको
अपनी नज़र से
देखना-परखना
अपने सौन्दर्य पर
आप ही मोहित होना
कभी केवल
अपने लिए सजना-संवरना
दर्पण से बात करना
अपनी मुस्कुराहट से
आनन्दित होना
फूलों-सा महकना
रंगों की रंगीनियों में बहकना
चूड़ियों का खनकना
हार का लहकना
झुमकों की खनखन
पल्लू की थिरकन
मन में गुनगुन
बस अपने मन की सुन।
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ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
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मन की बगिया महक रही देखो मैं बहक रही
फुलवारी में फूल खिले हैं मन की बगिया भी महक रही
पेड़ों पर बूर पड़े,कलियों ने करवट ली,देखो महक रहीं
तितली ने पंख पसारे,फूलों से देखो तो गुपचुप बात हुई
अन्तर्मन में चाहत की हूक उठी, देखो तो मैं बहक रही