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कभी-कभी सूरज
के सामने ही
बादल बरसने लगते हैं।
और जल-कण,
रजत-से
दमकने लगते हैं।
तम
खण्डित होने लगता है,
घटाएं
किनारा कर जाती हैं।
वे भी
इस सौन्दय-पाश में
बंध दर्शक बन जाती हैं।
फिर
मानव-मन कहां
तटस्थ रह पाता है,
सरस-रस से सराबोर
मद-मस्त हो जाता है।
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कर लो नारी पर वार
जब कुछ न लिखने को मिले तो कर लो नारी पर वार।
वाह-वाही भरपूर मिलेगी, वैसे समझते उसको लाचार।
कल तक माँ-माँ लिख नहीं अघाते थे सारे साहित्यकार
आज उसी में खोट दिखे, समझती देखो पति को दास
पत्नी भी माँ है क्यों कभी नहीं देख पाते हो तुम
यदि माता-पिता को वृद्धाश्रम भेजा, किसका है यह दोष
परिवारों में निर्णय पर हावी होते सदा पुरुष के भाव
जब मन में आता है कर लेते नारी के चरित्र पर प्रहार।
लिखने से पहले मुड़ अपनी पत्नी पर दृष्टि डालें एक बार ।
अपने बच्चों की माँ के मान की भी सोच लिया करो कभी कभार
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रंग-बिरंगी ज़िन्दगी
इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी
इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी
कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें
इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।
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सिक्के सारे खन-खन गिरते
कहते हैं जी,
हाथ की है मैल रूपया,
थोड़ी मुझको देना भई।
मुट्ठी से रिसता है धन,
गुल्लक मेरी टूट गई।
सिक्के सारे खन-खन गिरते
किसने लूटे पता नहीं।
नोट निकालो नोट निकालो
सुनते-सुनते
नींद हमारी टूट गई।
छल है, मोह-माया है,
चाह नहीं है
कहने की ही बातें हैं।
मेरा पैसा मुझसे छीनें,
ये कैसी सरकार है भैया।
टैक्सों के नये नाम
समझ न आयें
कोई हमको समझाए भैया
किसकी जेबें भर गईं,
किसकी कट गईं,
कोई कैसे जाने भैया।
हाल देख-देखकर सबका
अपनी हो गई ता-ता थैया।
नोटों की गद्दी पर बैठे,
उठने की है चाह नहीं,
मोह-माया सब छूट गई,
बस वैरागी होने को
मन करता है भैया।
आगे-आगे हम हैं
पीछे-पीछे है सरकार,
बचने का है कौन उपाय
कोई हमको सुझाओ दैया।
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।
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मेरी कागज़ की नाव खो गई
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे
पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी,
पलटती थी,
टूट-फूट जाती थी,
भंवर में अटकती थी,
रूक-रूक जाती थी,
एक जाती थी,
एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे
सब अपने थे]
न टूटते थे न फूटते थे,
जीवन की लय
यूं ही बहती जाती थी।
फिर एक दिन
हम बड़े हो गये
सपने भारी-भारी हो गये।
अपने ही नहीं
सबके हो गये।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव
कहां खो गई।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं।
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई
मिल जाये तो लौटा देना।
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तिनके का सहारा
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है,
किस्मत साथ दे
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में साथ नहीं देते सदा।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी,
लेकिन कभी-कभी एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
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ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना
अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करते हुए
लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।
उठते बवंडर ने
सागर में कश्तियों से
अपनी नाराज़गी जताई।
हवाओं की गति ने
सब उलट-पलट दिया।
घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं
मानों कोई आतप दिया।
प्रकृति के सौन्दर्य से
मोहित इंसान
इस रौद्र रूप के सामने
बौना दिखाई दिया।
प्रकृति संकेत देती है,
आदेश देती है, निर्देश देती है।
अक्सर
सम्हलने का समय भी देती है।
किन्तु हम
सदा की तरह
आग लगने पर
कुंआ खोदने निकलते हैं।
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एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
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वृक्षों के लिए जगह नहीं
अट्टालिकाओं की दीवारों से
लटकती है
मंहगी हरियाली।
घरों के भीतर
बैठै हैं बोनसाई।
वन-कानन
कहीं दूर खिसक गये हैं।
शहरों की मज़बूती
वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।
नदियां उफ़नने लगी हैं।
पहाड़ दरकने लगे हैं।
हरियाली की आस में
बैठा है हाथ में पौध लिए
आम आदमी,
कहां रोपूं इसे
कि अगली पीढ़ी को
ताज़ी हवा,
सुहाना परिवेश दे सकूं।
.
मैंने कहा
डर मत,
हवाओं की मशीनें आ गई हैं
लगवा लेगी अगली पीढ़ी।
तू बस अपना सोच।
यही आज की सच्चाई है
कोई माने या न माने