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आ जा,
आज ज़रा
ताज के साये में
कुछ देर बैठ कर देखें।
क्या एहसास होता है
ज़रा सोच कर देखें।
किसी के प्रेम के प्रतीक को
अपने मन में उतार कर देखें।
क्या सोचकर बनाया होगा
अपनी महबूबा के लिए
इसे किसी ने,
ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।
न ज़मीं पर रहता है
न आसमां पर,
किस के दिल में कौन रहता है
ज़रा जांच कर देखें।
प्यार के इज़हार के लिए
इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,
बस एक बार
हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,
तरल-तरल भाव-सी,
प्रेम की कही-अनकही कहानी
नहीं कह सकता यह ताज जी।
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बड़े मसले हैं रोटी के
बड़े मसले हैं रोटी के।
रोटी बनाने
और खाने से पहले
एक लम्बी प्रक्रिया से
गुज़रना पड़ता है
हम महिलाओं को।
इस जग में
कौन समझा है
हमारा दर्द।
बस थाली में रोटी देखते ही
टूट पड़ते हैं।
मिट्टी से लेकर
रसोई तक पहुंचते-पहुंचते
किसे कितना दर्द होता है
और कितना आनन्द मिलता है
कौन समझ पाता है।
जब बच्चा
रोटी का पहला कौर खाता है
तब मां का आनन्द
कौन समझ पाता है।
जब किसी की आंखों में
तृप्ति दिखती है
तब रोटी बनाने की
मानों कीमत मिल जाती है।
लेकिन बस
इतना ही समझ नहीं आया
मुझे आज तक
कि रोटी गोल ही क्यों।
ठीक है
दुनिया गोल, धरती गोल
सूरज-चंदा गोल,
नज़रें गोल,
जीवन का पहिया गोल
पता नहीं और कितने गोल।
तो भले-मानुष
रोटी चपटी ही खा लो।
वही स्वाद मिलेगा।
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मन में एक जंगल है
मन में एक जंगल है
विचारों का, भावों का।
एक झंझावात की तरह आते हैं
अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,
तहस-नहस करते हैं
और हवा के झोंके के साथ
अचानक
कहीं दूर उड़ जाते हैं।
कभी शब्द दे पाती हूं
और कभी नहीं।
लिखे शब्द पिघलने लगते हैं
आसमानी बादलों की तरह।
कहीं दूर उड़ जाते हैं
पक्षी की तरह।
हर बार एक कही-अनकही
आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।
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क्या होगा वक्त के उस पार
वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,
खुशियां हैं वक्त के इस पार।
दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,
आवागमन है वक्त के इस पार।
कल किसने देखा है,
कौन जाने क्या होगा,
क्यों सोच में डूबे,
आज को जी लेते हैं,
क्यों डरें,
क्या होगा वक्त के उस पार।
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विश्वास का धागा
भाई-बहन का प्यार है राखी
रिश्तों की मधुर सौगात है राखी
विश्वास का एक धागा होता है
अनुपम रिश्तों का आधार है राखी
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एक मुस्कान हो जाये
देर से
तुम्हें निहारते निहारते
मेरे जीवन में भी
रंग करवट लेने लगे है।।
इस में
अपनों से
मन की बात कह ली हो
तो चलो
एक उड़ान हो जाये
एक मुस्कान हो जाये
बस यूं
गुमसुम गुमसुम न बैठो।
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चल आज लड़की-लड़की खेलें
चल आज लड़की-लड़की खेलें।
-
साल में
तीन सौ पैंसठ दिन।
कुछ तुम्हारे नाम
कुछ हमारे नाम
कुछ इसके नाम
कुछ उसके नाम।
रोज़ सोचना पड़ता है
आज का दिन
किसके नाम?
कुछ झुनझुने लेकर
घूमते हैं हम।
आम से खास बनाने की
चाह लिए
जूझते हैं हम।
समस्याओं से भागते
कुछ नारे
गूंथते हैं हम।
कभी सरकार को कोसते
कभी हालात पर बोलते
नित नये नारे
जोड़ते हैं हम।
हालात को समझते नहीं
खोखले नारों से हटते नहीं
वास्तविकता के धरातल पर
चलते नहीं
सच्चाई को परखते नहीं
ज़िन्दगी को समझते नहीं
उधेड़-बुन में लगे हैं
मन से जुड़ते नहीं
जो करना चाहिए
वह करते नहीं
बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं
फिर आनन्द से
अगले दिन पर लिखने के लिए
मचलते हैं।
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अब कांटों की बारी है
फूलों की बहुत खेती कर ली
अब कांटों की बारी है।
पत्ता–पत्ता बिखर गया
कांटों की सुन्दर मोहक क्यारी है।
न जाने कितने बीज बोये थे
रंग-बिरंगे फूलों के।
सपनों में देखा करती थी
महके महके गुलशन के रंगों के।
मिट्टी महकी, बरसात हुई
तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।
नहीं जानती, क्योंकर
फूलों के बीजों से कांटे निकले
परख –परख कर जीवन बीता
कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई।
दोष नहीं किसी को दे सकती
अब इन्हें सहेजकर बैठी हूं।
वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया
सहज भाव से जीवन में
फूलों का अनुभव दे गये
रस भर गये जीवन में।
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जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं
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प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
खिलते हैं फूल,
तितलियां पंख फैलाती हैं,
चिड़िया चहकती है,
डालियां
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।