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हां , जी हां
पुतले बनकर रह गये हैं हम।
मतदाता तो कभी थे ही नहीं,
कल भी कठपुतलियां थे
आज भी हैं
और शायद कल भी रहेंगे।
कौन नचा रहा है
और कौन भुना रहा है
सब जानते हैं।
स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।
बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है
जिह्वा को लकवा मार गया है
और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।
फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक
लम्बी सूची है
और यहां जिह्वा खूब चलती है।
किन्तु जब
निर्णय की बात आती है
तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।
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दो घूंट
छोड़ के देख
एक बार
बस एक बार
दो घूंट
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
शाम ढले घर लौट
पर छोड़ के
दो घूंट का लालच।
फिर देख,
पहली बार देख
महकते हैं
तेरी बगिया में फूल।
पर एक बार
बस एक बार
छोड़ के देख
दो घूंट का लालच।
देख
फिर देख
जिन्दगी उदास है।
द्वार पर टिकी
एक मूरत।
निहारती है
सूनी सड़क।
रोज़
दो आंखें पीती हैं।
जिन्हें, देख नहीं पाता तू।
क्योंकि
पी के आता है
तू
दो घूंट।
डरते हैं,
रोते भी हैं
फूल।
और सहमकर
बेमौसम ही
मुरझा भी जाते हैं ये फूल।
कैसे जान पायेगा तू ये सब
पी के जो लौटता है
दो घूंट।
एक बार, बस एक बार
छोड़ के देख दो घूंट।
चेहरे पर उतर आयेगी
सुबह की सुहानी धूप।
बस उसी रोज़, बस उसी रोज़
जान पायेगा
कि महकते ही नहीं
चहकते भी हैं फूल।
जिन्दगी सुहानी है
हाथ की तेरे बात है
बस छोड़ दे, बस छोड़ दे
दो घूंट।
बस एक बार, छोड़ के देख
दो घूंट का लालच ।
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जीवन की यही असली कहानी है
आज आपको दिल की सच्ची बात बतानी है
काम का मन नहीं, सुबह से चादर तानी है
पल-पल बदले है सोच, पल-पल बदले भाव
शायद हर जीवन की यही असली कहानी है।
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परीलोक से आई है
चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी
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गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का
खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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तितली बोली
तितली उड़ती चुप-चुप, भंवरा करता भुन-भुन
भंवरे से बोली तितली, ज़रा मेरी बात तो सुन
तू काला, मैं सुंदर, रंग-बिरंगी, सबके मन भाती,
फूल-फूल मैं उड़ती फिरती, तू न सपने बुन।
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ये चिड़िया
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी-बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
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एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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किसके हाथ में डोर है
नगर नगर में शोर है यहां गली-गली में चोर है
मुंह ढककर बैठे हैं सारे, देखो अन्याय यह घोर है
समझौते की बात हुई, कोई किसी का नाम न ले
धरने पर बैठै हैं सारे, ढूंढों किसके हाथ में डोर है
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जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला
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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
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अब हम गज़ल तो लिखते नहीं
तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती
लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
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जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।
अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,
गिलास न होने के
बहाने न बनाओ तुम।
‘गर जाम नज़रों से पिलाओगे,
तो आंख से आंख कैसे मिलाओगे तुम।
किसी को टेढ़ी नज़र से देखने
का मज़ा कैसे पाओगे तुम।
आंखों में आंखें डालकर
बात करने का मज़ा ही अलग है,
उसे कैसे छीन पाओगे तुम।
नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे
तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।
कभी आंख झुकाओगे,
कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,
कभी आंख बन्द कर,
कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।
और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली
तो आंसुओं की जगह
बह रहे सोमरस को दुनिया से
कैसे छुपाओगे तुम।
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पलायन का स्वर भाता नहीं
अरे! क्यों छोड़ो भी
कोई बात हुई, कि छोड़ो भी
यह पलायन का स्वर मुझे भाता नहीं।
मुझे इस तरह से बात करना आता नहीं।
कोई छेड़ गया, कोई बोल गया
कोई छू गया।
किसी की वाणाी से अपशब्द झरे,
कोई मेरा अधिकार मार गया,
किसी के शब्द-वाण झरे,
ढूंढकर मुहावरे पढ़े।
हरदम छोटेपन का एहसास कराते
कहीं दो वर्ष की बच्ची
अथवा अस्सी की वृद्धा
नहीं छोड़ी जी,
और आप कहते हैं
छोड़ो जी।
छोटी-छोटी बातों को
हम कह देते हैं छोड़ो जी
कब बन जाता
इस राई का पहाड़
यह भी तो देखो जी।
छोड़ो जी कहकर
हम देते हिम्मत उन लोगों को
जो नहीं मानते
कि गलत राहें छोड़ो जी।
इसलिए मैं तो मानूं
कि क्यों छोड़ो जी।
न जी न,
न छोड़ो जी।