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कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
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इंसान की फ़ितरत
देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम
देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम
जलती तीली देखकर भ्रमित न होना
देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम
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तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
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हास्य बाल कथा गीदड़ और ऊंट की कहानी
अध्यापक ने तीसरी कक्षा के बच्चों को यह बोध कथा सुनाई।
एक जंगल में गीदड़ और ऊंट रहते थे। एक दिन गीदड़ ने ऊंट से कहा, नदी पार गन्नों का खेत है, चलो आज रात वहां गन्ने खाने चलते हैं। ऊंट ने पूछा कि तुम कैसे नदी पार करोगे, तुम्हें तो तैरना नहीं आता। गीदड़ ने कहा कि देखो मैंने तुम्हें गन्ने के खेत के बारे में बताया, तुम मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करवा देना। हम अंधेरे में ही चुपचाप गन्ने खाकर आ जायेंगे, खेत का मालिक नहीं जागेगा।
दोनों नदी पारकर खेत में गये और पेटभर कर गन्ने खाये। ऊंट ने कहा चलो वापिस चलते हैं। लेकिन गीदड़ अचानक गर्दन ऊपर उठाकर ‘‘हुआं-हुआं’’ करने लगा। ऊंट ने उसे रोका, कि ऐसा मत करो, खेत का मालिक जाग जायेगा और हमें मारेगा। गीदड़ ने कहा कि खाना खाने के बाद अगर वह ‘‘हुआं-हुआ’’ न करे तो खाना नहीं पचता। और वह और ज़ोर से ‘‘हुंआ-हुंआ’’ करने लगा। खेत का मालिक जाग गया और डंडा लेकर दौड़ा। गीदड़ तो गन्नों में छुप गया और ऊंट को खूब मार पड़ी।
तब वे फिर नदी पार कर लौटने लगे और गीदड़ ऊंट की पीठ पर बैठ गया। गहरी नदी के बीच में पहुंचकर ऊंट डुबकियां लेने लगा। गीदड़ चिल्लाया अरे ऊंट भाई, यह क्या कर रहे हो, मैं डूब जाउंगा। ऊंट ने कहा कि खाना खाने के बाद जब तक मैं पानी में डुबकी नहीं लगा लेता मेरा भोजन नहीं पचता। ऊंट ने एक गहरी डुबकी लगाई और गीदड़ डूब गया।
अब अध्यापक ने बच्चों से पूछा ‘‘ बच्चो, इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है?’’
एक बच्चे ने उठकर कहा ‘‘ इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि खाना खाने के बाद ‘‘हुंआ-हुंआ नहीं करना चाहिए।’’
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सपनों की बात न करना यारो मुझसे
आंखों में तिरते हैं, पलकों में छिपते हैं
शब्दों में बंधते हैं, आहों में कटते हैं
सपनों की बात न करना यारो मुझसे
सांसों में बिंधते हैं, राहों में चुभते हैं।
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बस प्यार किया जाता है
मन है कि
आकाश हुआ जाता है
विश्वास हुआ जाता है
तुम्हारे साथ
एक एहसास हुआ जाता है
घनघारे घटाओं में
यूं ही निराकार जिया जाता है
क्षणिक है यह रूप
भाव, पिघलेंगे
हवा बहेगी
सूरत, मिट जायेगी
तो क्या
मन में तो अंकित है इक रूप
बस,
उससे ही जिया जाता है
यूं ही, रहा जाता है
बस प्यार, किया जाता है
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शोर भीतर की आहटों को
बाहर का शोर
भीतर की आहटों को
अक्सर चुप करवा देता है
और हम
अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को
अनसुना कर
आगे निकल जाते हैं,
अक्सर, गलत राहों पर।
मन के भीतर भी एक शोर है,
खलबली है, द्वंद्व है,
वाद-विवाद, वितंडावाद है
जिसकी हम अक्सर
उपेक्षा कर जाते हैं।
अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।
कहीं डरते हैं
क्योंकि सच तो वहीं है
और हम
सच का सामना करने से
डरते हैं।
अपने-आप से डरते हैं
क्योंकि
जब भीतर की आवाज़ें
सन्नाटें का चीरती हुई
बाहर निकलेंगी
तब कुछ तो अनघट घटेगा
और हम
उससे ही बचना चाहते हैं
इसीलिए से डरते हैं।
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नश्वर जीवन का संदेश
देखिए, दीप की लौ सहज-सहज मुस्काती है
सतरंगी आभा से मन मुदित कर जाती है
दीपदान रह जायेगा लौ रूप बदलती रहती है
मिटकर भी पलभर में कितनी खुशियां बांट जाती है
लहराकर नश्वर जीवन का संदेश हमें दे जाती है
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प्रभास है जीवन
हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन।
हर दिन एक नया प्रयास है जीवन।
सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,
आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन।
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अपनेपन की दुविधा
हमारे भारतीय परिवारों में दो ऐसे समय होते हैं जब निकट-दूर के सब अपरिचित-परिचित अगली-पिछली भूलकर एक साथ होते हैं अथवा कहें कि दिखाई देते हैं। एक
विवाह-समारोहों में और दूसरा किसी के निधन पर। विवाह-समारोह तो केवल दो-तीन दिन के ही होते हैं, और इस अवसर वे ही लोग होते हैं, जिन्हें सही से निमन्त्रित किया गया हो।
किन्तु किसी के निधन पर तो 16-17 दिन ऐसे लोगों के बीच बीतते हैं, जिनमें से कुछ बहुत अपने होते हैं। कुछ कभी-कभार चिट्ठी-पत्री जैसे, जिनका नाम देखकर हम बन्द लिफ़ाफा रख देते हैं, बाद में पढ़ लेंगे। कुछ समाचार पत्र की सूचनाओं जैसे, कुछ दीपावली, जन्मदिवस, नये वर्ष पर शुभकामनाओं जैसे, और कुछ ऐसे जिन्हें हम बरसों-बरस नहीं मिले होते, और कुछ ऐसे जो न जाने कहां-कहां से अलमारी की पुरानी पुस्तकों से निकलकर सामने आ खड़े होते हैं । ऐसी पुस्तकें जिन्हें हम न तो रद्दी में बेच पाते हैं और न सहेज पाते हैं, इसलिए अलमारी के किसी कोने में पीछे-से रख देते हैं। और ऐसी ही दो-चार अधूरी पढ़ी, छूटी पुस्तकों के माध्यम से हम जीवन के सारे अध्याय पुन: पढ़ डालते हैं न चाहते हुए भी।
जीवन में कौन साथ है और कौन नहीं, हम कभी जान ही नहीं पाते और हमें ही कोई कितना जान पाया है, ऐसे ही समय ज्ञात होता है। बस हवाओं में जीते हैं, हवाओं से लड़ते हैं, और उन्हें ही ओढ़-बिछाकर सो जाते हैं।