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कहते हैं दुराचारी था, अहंकारी था, पर मूर्ख बहुत था रावण
बहन के मान के लिए उसने दांव पर लगाया था सिंहासन
जानता था जीत नहीं पाउंगा, पर बहन का मान रखना था उसे
अपने ही कपटी थे, जानकर भी, दांव पर लगाया था सिंहासन
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हमारा बायोडेटा
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,
मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी
परिवर्तित करना जानते हैं।
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,
मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,
कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,
समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते
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बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
.
आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
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चल न मन,पतंग बन
आकाश छूने की तमन्ना है
पतंग में।
एक पतली सी डोर के सहारे
यह जानते हुए भी
कि कट सकती है,
फट सकती है,
लूट ली जा सकती है
तारों में उलझकर रह सकती है
टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।
किन्तु उन्मुक्त गगन
जीवन का उत्साह
खुली उड़ान,
उत्सव का आनन्द
उल्लास और उमंग।
पवन की गति,
कुछ हाथों की यति
रंगों की मति
राहें नहीं रोकते।
* * * *
चल न मन,
पतंग बन।
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मंचों पर बने रहने के लिए
अब तो हमको भी आनन-फ़ानन में कविता लिखना आ गया
बिना लय-ताल के प्रदत्त शीर्षक पर गीत रचना आ गया
जानते हैं सब वाह-वाह करके किनारा कर लेते हैं बिना पढ़े
मंचों पर बने रहने के लिए हमें भी यह सब करना आ गया
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फूलों संग महक रही धरा
पत्तों पर भंवरे, कभी तितली बैठी देखो पंख पसारे।
धूप सेंकती, भोजन करती, चिड़िया देखो कैसे पुकारे।
सूखे पत्ते झर जायेंगे, फिर नव किसलय आयेंगें,
फूलों संग महक रही धरा, बरसीं बूंदें कण-कण निखारे।
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खेल-कूद क्या होती है
बचपन की
यादों के झरोखे खुल गये,
कितने ही खेल खेलने में
मन ही मन जुट गये।
चलो, आपको सब याद दिलाते हैं।
खेल-कूद क्या होती है,
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
वो चार कंचे जीतना,
बड़ा कंचा हथियाना,
स्टापू में दूसरे के काटे लगाना,
कोक-लाछी-पाकी में पीठ पर धौंस जमाना।
वो गुल्ली-डंडे में गुल्ली उड़ाना,
तेरी-मेरी उंच-नीच पर रोटियां पकाना,
लुका-छिपी में आंख खोलना।
आंख पर पट्टी बांधकर पकड़म-पकड़ाई ,
लंगड़ी टांग का आनन्द लेना।
कक्षा की पिछली सीट पर बैठकर
गिट्टियां बजाना, लट्टू घुमाना ।
कापी के आखिरी पन्ने पर
काटा-ज़ीरों बनाना,
पिट्ठू में पत्थर जमाना ।
पुरानी कापियों के पन्नों के
किश्तियां बनाना और हवाई-ज़हाज उड़ाना।
सांप-सीढ़ी के खेल में 99 से एक पर आना,
और कभी सात से 99 पर जाना।
पोशम-पा भई पोशम-पा में चोर पकड़ना।
व्यापार में ढेर-से रूपये जीतना।
विष-अमृत और रस्सी-टप्पा।
है तो और भी बहुत-कुछ।
किन्तु
खेल-कूद क्या होती है
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
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स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
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प्रभास है जीवन
हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन।
हर दिन एक नया प्रयास है जीवन।
सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,
आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन।
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हम मस्त हैं अपने ही बुने मकड़जाल में
जीवन में जरूरी है
किसी परिधि में सिमटना,
सीमाओं में बंधना।
और ये सीमाएं
हम स्वयं तय करें,
तय करें अपनी दूरियां,
अपनी दीवारें चुनें,
बनायें किले या ढहायें।
तुम कुछ भी सोचते रहो
कि फंस रहें हैं हम
अपने ही जाल में,
लेकिन सदा ऐसा नहीं होता।
जब हम
सबकी उपेक्षा कर
अपना सुरक्षा कवच
स्वयं बुनते हैं,
तो तकलीफ होती है,
कहानियां बुनी जाती हैं,
कथाएं सुनी जाती हैं।
कुछ भी कहो,
हम मस्त हैं
अपने ही बुने मकड़जाल में।