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नन्हीं चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है
क्षितिज पर छितराए रंगों से आकर्षित होकर।
पर इससे पहले
कि चिड़िया उन रंगों को छू ले
रंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
फिर रंग भी छलावा-भर हैं
शायद, तभी तो रोज़ बदलते हैं अपना अर्थ।
उस दिन
सूरज आग का लाल गोला था।
फिर अचानक किसी के गोरे माथे पर
दमकती लाल बिन्दी सा हो गया।
शाम घिरते-घिरते बिखरते सिमटते रंग
बिन्दी लाल, खून लाल
रंग व्यंग्य से मुस्कुराते
हत्या के बाद सुराग न मिल पाने पर
छूटे अपराधी के समान।
आज वही लाल–पीले रंग
चूल्हे की आग हो गये हैं
जिसमें रोज़ रोटी पकती है
दूध उफ़नता है, चाय गिरती है,
गुस्सा भड़कता है
फिर कभी–कभी, औरत जलती है।
आकाश नीला है, देह के रंग से।
फिर सब शांत। आग चुप।
सफ़ेद चादर । लाश पर । आकाश पर ।
कभी कोई छोटी चिड़िया
अपनी चहचहाहट से
क्षितिज के रंगों को स्वर देने लगती है
खिलखिलाते हैं रंग।
बच्चे किलोल करते हैं,
संवरता है आकाश
बिखरती है गालों पर लालिमा
जिन्दगी की मुस्कुराहट।
तभी, कहीं विस्फ़ोट होता है
रंग चुप हो जाते हैं,
बच्चा भयभीत।
और क्षितिज कालिमा की ओर अग्रसर।
अन्धेरे का लाभ उठाकर
क्षितिज – सब दफ़ना देता है
सुबह फ़िर सामान्य।
पीला रंग कभी तो बसन्त लगता है,
मादकता भरा
और कभी बीमार चेहरा, भूख
भटका हुआ सूरज,
मुर्झाई उदासी, ठहरा ठण्डापन।
सुनहरा रंग, सुनहरा संसार बसाता है
फिर अनायास
क्षितिज के माथे पर
टूटने– बिखरने लगते हैं सितारे
सब देखते है, सब जानते हैं,
पर कोई कुछ नहीं बोलता।
सब चुप ! क्षितिज बहुत बड़ा है !
सब समेट लेगा।
हमें क्या पड़ी है।
इतना सब होने पर भी
चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है।
पर मैं, अब
शेष रंगों की पहचान से
डर गई हूं
और पीछे हट गई हूं।
समझ नहीं पा रही हूं
कि चिड़िया की तरह
रोज़ उड़ान भरती रहूं
या फ़िर इन्हीं रंगों से
क्षितिज का इतिहास लिख डालूं
पर मुझे
चिड़िया से तो पूछना होगा।
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कौन-सा विषय चुनूँ
यह दुनिया है। आप कहेंगे कि आपको पता है कि यह दुनिया है। किन्तु बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वह भी स्मरण करना पड़ता है जो है, जो दिखाई देता है, सुनाई देता है, चुभता है, चीखता है अथवा जो हम जानते हैं। क्योंकि सत्य का सामना करने में बहुत जोखिम होते हैं, उलझनें, समस्याएँ होती हैं। इस कारण इसे हम नकारते हैं और बस अपना राग अलापते हैं। क्या सच में ही आपके आस-पास कोई हलचल, खलबली, हंगामा, उपद्रव, उथल-पुथल, सनसनी, आन्दोलन नहीं है ? आस-पास, आपके परिवेश में, सड़क पर, समाचार-पत्रों से मिल रहे ज्ञान से, मीडिया से मिलने वाले समाचारों से, न जाने कितने विषय हैं जो हमारे आस-पास तैरते रहते हैं किन्तु हम उन्हें नकारते रहते हैं।
ऐसा तो नहीं हो सकता, कुछ तो होगा और अवश्य होगा। और हम जो तथाकथित कवि अथवा साहित्यकार कहलाते हैं या अपने को ऐसा समझते हैं तो हम ज़्यादा भावुक और संवेदनशील कहलातेे हैं। फिर हमें आज ऐसी आवाज़ें क्यों सुनाई नहीं दे रहीं। सबसे बड़ी समस्या यह कि यदि हम भुक्तभोगी भी होते हैं तब भी ऐसी बात कहने से, अथवा खुली चर्चा से डरने लगे हैं।
कुछ बने-बनाये विषय हैं आज हमारे पास लेखन के लिए। सबसे बड़ा विषय नारी है, बेचारी है, मति की मारी है, संस्कारी है, लेकिन है बुरी। या तो गंवार है अथवा आधुनिका, किन्तु दोनों ही स्थितियों में वह सामान्य नहीं है। भ्रूण हत्या है, बेटी है, निर्धनता है आदि-आदि। कहीं बहू बुरी है तो कहीं सास। कहीं दोनों ही। बेटा कुपूत है। बुरे बहू-बेटा हैं, कुपूत हैं, माता-पिता के धन के लालची हैं, उनकी सेवा न करने वाले बुरे बच्चे हैं। उनकी सम्पत्ति पर नज़र रखे हैं।जितने पति हैं सब पत्नियों के गुलाम हैं। उनके कहने से अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते उन्हें वृद्धाश्रम भेज देते हैं। और जब यह सब चुक जाये तो हम अत्यन्त आस्तिक हैं और इस विषय पर हम अबाध अपनी कलम चला सकते हैं। विशेषकर फ़ेसबुक का सारा कविता संसार इन्हीं विषयों से घिरा हुआ है। मुझे क्यों आपत्ति? मुझे नहीं आपत्ति। मैं भी तो आप सबके साथ ही हूँ।
सोचती हूँ आज इनमें से कौन-सा विषय चुनूँ कि रचना नवीन प्रतीत हो।
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
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विश्व-कविता-दिवस
विश्व कविता दिवस के अवसर पर लिखी एक रचना
*-*-*-*-*
और दिनों की तरह
विश्व-कविता-दिवस भी
आया और चला गया।
न कुछ नया मिला
न पुराना गया।
हम दिनभर
कुछ पुस्तकें लिए,
समाचार पत्रों को कुतरते,
टी वी पर कुछ
सुनने की चाह लिए
बैठे रहे
और टूंगते रहे नमकीन।
फे़सबुक पर
लेते-देते रहे बधाईयाँ
मुझ जैसे तथाकथित कवियों को
एक और विषय मिल गया
एक नई कविता लिखने के लिए,
एक काव्य-पाठ के लिए,
अपना चेहरा लिए
प्रस्तुत होती रहे हम।
और अन्त में
पढ़ते और सुनते रहे
अपनी ही कविताएँ
सदा की तरह।
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नौ दिन बीतते ही
वर्ष में
बस दो बार
तेरे अवतरण की
प्रतीक्षा करते हैं
तेरे रूप-गुण की
चिन्ता करते हैं
सजाते हैं तेरा दरबार
तेरे मोहक रूप से
आंखें नम करते हैं
गुणगान करते हैं
तेरी शक्ति, तेरी आभा से
मन शान्त करते हैं।
दुराचारी
प्रवृत्तियों का
दमन करते हैं।
किन्तु
नौ दिन बीतते ही
तिरोहित कर
भूल जाते हैं
और लौट आते हैं
अपने चिर-स्वभाव में।
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अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं
रोशनी से
बात करने चला मैं।
सुबह-सवेरे
अपने से चला मैं।
उगते सूरज को
नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
न बदली उसकी आब,
तो अपनी राहों पर
यूं ही बढ़ता चला मैं।
उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
साथ नहीं मांगता
हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
आज भी चला मैं।
वृक्ष भी बढ़ रहे,
शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
मेरा साथ दे रहीं।
तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।
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धन्यवाद देता हूँ ईश्वर को
मेरी खुशियों को
नज़र न लगे किसी की
धन्यवाद देता हूँ
ईश्वर को
मुझे वनमानुष ही रहने दिया
इंसान न बनाया।
न घर की चिन्ता
न घाट की
न धन की चिन्ता
न आवास की
न जमाखोरी
न धोखाधड़ी, न चोरी
न तेरी न मेरी
न इसकी न उसकी
न इधर की, न उधर की
न बच्चे बोझ
न बच्चों पर बोझ
यूँ ही मदमस्त रहता हूँ
अपनी मर्ज़ी से
खाता-पीता हूँ
मदमस्त सोता हूँ।
ईष्र्या हो रही है न मुझसे
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कवियों की पंगत लगी
कवियों की पंगत लगी, बैठे करें विचार
तू मेरी वाह कर, मैं तेरी, ऐसे करें प्रचार
भीड़ मैं कर लूंगा, तू अनुदान जुटा प्यारे
रचना कैसी भी हो, सब चलती है यार
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घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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भीड़ का हिस्सा बन
अकेलेपन की समस्या से हम अक्सर परेशान रहते हैं
किन्तु भीड़ का हिस्सा बनने से भी तो कतराते हैं
कभी अपनी पहचान खोकर सबके बीच समाकर देखिए
किस तरह चारों ओर अपने ही अपने नज़र आते हैं
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ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है
जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें
तो सीधे धराशायी भी कर जाती है