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बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।
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छोड़ दो अब मुफ्त की बात
क्या तुम्हारी शिक्षा
क्या आयु
कितनी आय
कौन-सी नौकरी
कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
कैसे भूल सकते हैं हम
तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
अपनों से ही युद्धों में
झोंक दिये जाते थे हम।
कैसे निकले उस सबसे बाहर
फिर शताब्दियां लग गईं,
कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
अपना ही परिश्रम,
अपनी ही सम्पत्ति
अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।
अपने ही भीतर
आततायियों को पाल रहे हैं हम।
किसके झांसे में आ गये हैं हम।
न शिक्षा चाहिए
न विकास, न उद्यम।
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
एक नौकरी सरकारी
धन मिले, घर मिले,
अपना घर फूंककर मिले,
मरे की मिले
या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले
लाश पर मिले, श्मशान में मिले
कफ़न बेचकर मिले
बस मुफ्त की मिले
बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले
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निद्रा पर एक झलकी
जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है
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पर मुझे चिड़िया से तो पूछना होगा
नन्हीं चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है
क्षितिज पर छितराए रंगों से आकर्षित होकर।
पर इससे पहले
कि चिड़िया उन रंगों को छू ले
रंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
फिर रंग भी छलावा-भर हैं
शायद, तभी तो रोज़ बदलते हैं अपना अर्थ।
उस दिन
सूरज आग का लाल गोला था।
फिर अचानक किसी के गोरे माथे पर
दमकती लाल बिन्दी सा हो गया।
शाम घिरते-घिरते बिखरते सिमटते रंग
बिन्दी लाल, खून लाल
रंग व्यंग्य से मुस्कुराते
हत्या के बाद सुराग न मिल पाने पर
छूटे अपराधी के समान।
आज वही लाल–पीले रंग
चूल्हे की आग हो गये हैं
जिसमें रोज़ रोटी पकती है
दूध उफ़नता है, चाय गिरती है,
गुस्सा भड़कता है
फिर कभी–कभी, औरत जलती है।
आकाश नीला है, देह के रंग से।
फिर सब शांत। आग चुप।
सफ़ेद चादर । लाश पर । आकाश पर ।
कभी कोई छोटी चिड़िया
अपनी चहचहाहट से
क्षितिज के रंगों को स्वर देने लगती है
खिलखिलाते हैं रंग।
बच्चे किलोल करते हैं,
संवरता है आकाश
बिखरती है गालों पर लालिमा
जिन्दगी की मुस्कुराहट।
तभी, कहीं विस्फ़ोट होता है
रंग चुप हो जाते हैं,
बच्चा भयभीत।
और क्षितिज कालिमा की ओर अग्रसर।
अन्धेरे का लाभ उठाकर
क्षितिज – सब दफ़ना देता है
सुबह फ़िर सामान्य।
पीला रंग कभी तो बसन्त लगता है,
मादकता भरा
और कभी बीमार चेहरा, भूख
भटका हुआ सूरज,
मुर्झाई उदासी, ठहरा ठण्डापन।
सुनहरा रंग, सुनहरा संसार बसाता है
फिर अनायास
क्षितिज के माथे पर
टूटने– बिखरने लगते हैं सितारे
सब देखते है, सब जानते हैं,
पर कोई कुछ नहीं बोलता।
सब चुप ! क्षितिज बहुत बड़ा है !
सब समेट लेगा।
हमें क्या पड़ी है।
इतना सब होने पर भी
चिड़िया रोज़ उड़ान भरती है।
पर मैं, अब
शेष रंगों की पहचान से
डर गई हूं
और पीछे हट गई हूं।
समझ नहीं पा रही हूं
कि चिड़िया की तरह
रोज़ उड़ान भरती रहूं
या फ़िर इन्हीं रंगों से
क्षितिज का इतिहास लिख डालूं
पर मुझे
चिड़िया से तो पूछना होगा।
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पूजा में हाथ जुड़ते नहीं
पूजा में हाथ जुड़ते नहीं,
आराधना में सिर झुकते नहीं।
मंदिरों में जुटी भीड़ में
भक्ति भाव दिखते नहीं।
पंक्तियां तोड़-तोड़कर
दर्शन कर रहे,
वी आई पी पास बनवा कर
आगे बढ़ रहे।
पण्डित चढ़ावे की थाली देखकर
प्रसाद बांट रहे,
फिल्मी गीतों की धुनों पर
भजन बज रहे,
प्रायोजित हो गई हैं
प्रदर्शन और सजावट
बन गई है पूजा और भक्ति,
शब्दों से लड़ते हैं हम
इंसानियत को भूलकर
जी रहे।
सच्चाई की राह पर हम चलते नहीं।
इंसानियत की पूजा हम करते नहीं।
पत्थरों को जोड़-जोड़कर
कुछ पत्थरों के लिए लड़ मरते हैं।
पर किसी डूबते को
तिनका का सहारा
हम दे सकते नहीं।
शिक्षा के नाम पर पाखण्ड
बांटने से कतराते नहीं।
लेकिन शिक्षा के नाम पर
हम आगे आते नहीं।
कैसे बढ़ेगा देश आगे
जब तक
पिछले कुछ किस्से भूलकर
हम आगे आते नहीं।
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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हम खुश हैं जग खुश है
इस भीड़ भरे संसार में मुश्किल से मिलती है तन्हाई सखा
आ, ज़रा दो बातें कर लें,कल क्या हो,जाने कौन सखा
ये उजली धूप,समां सुहाना,हवा बासंती,हरा भरा उपवन
हम खुश हैं, जग खुश है, जीवन में और क्या चाहिए सखा
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किसान क्यों है परेशान
कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।
पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।
कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,
खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।
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धरा पर पांव टिकते नहीं
और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर
धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर
यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़
क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर
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प्रकृति की ये कलाएँ
अपने ही रूप को देखो निहार रही ये लताएँ
मन को मुदित कर रहीं मनमोहक फ़िज़ाएँ
जल-थल-गगन मौन बैठे हो रहे आनन्दित
हर रोज़ नई कथा लिखती हैं इनकी अदाएँ
कौन समझ पाया है प्रकृति की ये कलाएँ
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चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।