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न आंख मूंद समर्थन कर किसी का, बुद्धि के दरवाज़े खोल,
अंध-भक्ति से हटकर, सोच-समझकर, मोल-तोलकर बोल,
कभी-कभी सूरज को भी दीपक की रोशनी दिखानी पड़ती है,
चेत ले आज, नहीं तो सोचेगा क्यों नहीं मैंने बोले निडर सच्चे बोल
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आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
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ज़िन्दगी लगती बेमानी है
जन्म की अजब कहानी है, मरण से जुड़ी रवानी है।
श्मशान घाट में जगह नहीं, खो चुके ज़िन्दगानी हैं।
पंक्तियों में लगे शवों का टोकन से होगा संस्कार,
फ़ुटपाथ पर लगी पंक्तियां, ज़िन्दगी लगती बेमानी है।
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दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
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साथी तेरा प्यार
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा
मिर्ची का अचार।
कभी पतझड़
तो कभी बहार,
कभी कण्टक चुभते
कभी फूल खिलें।
कभी कड़क-कड़क
बिजली कड़के
कभी बिन बादल बरसात।
कभी नदियां उफ़ने
कभी तलछट बनते
कभी लहर-लहर
कभी भंवर-भंवर।
कभी राग बने
सुर-साज सजे
जीवन की हर तान बजे।
लुक-छिप, लुक-छिप
खेल चला
जीवन का यूं ही
मेल चला।
साथी तेरा प्यार
जैसे खट्टा-मीठा अचार।
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आदमी आदमी से पूछता
आदमी आदमी से पूछता है
कहां मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
कहीं मिलेगा आदमी
आदमी आदमी से डरता है
कहीं मिल न जाये आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
क्यों डर कर रहता है आदमी
आदमी आदमी से कहता है
हालात बिगाड़ गया है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
कर्त्तव्यों से भागता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
अधिकार की बात करता है आदमी
आदमी आदमी को सताता है
यह बात जानता है हर आदमी
आदमी आदमी को बताता है
हरपल जीकर मरता है आदमी
आदमी आदमी को बताता है
सबसे बेकार जीव है तू आदमी
आदमी आदमी से पूछता है
ऐसा क्यों हो गया है आदमी
आदमी आदमी को समझाता है
आदमी से बचकर रहना हे आदमी
और आदमी, तू ही आदमी है
कैसे भूल गया, तू हे आदमी !
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कांटों को थाम लीजिए
रूकिये ज़रा, मुहब्बत की बात करनी है तो कांटों को थाम लीजिए
छोड़िये गुलाब की चाहत को, अनश्वर कांटों को अपने साथ लीजिए
न रंग बदलेंगे, न बिखरेंगे, न दिल तोड़ेंगे, दूर तक साथ निभायेंगे,
फूल भी अक्सर गहरा घाव कर जाते हैं, बस इतना जान लीजिए
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अपनी कहानियाँ आप रचते हैं
पुस्तकों में लिखते-लिखते
भाव साकार होने लगे।
शब्द आकार लेने लगे।
मन के भाव नर्तन करने लगे।
आशाओं के अश्व
दौड़ने लगे।
सही-गलत परखने लगे।
कल्पना की आकृतियां
सजीव होने लगीं,
लेखन से विलग
अपनी बात कहने लगीं।
पूछने लगीं, जांचने लगीं,
सत्य-असत्य परखने लगीं।
अंधेरे से रोशनियों में
चलने लगीं।
हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।
चल, इस ठहरी, सहमी
दुनिया से अलग चलते हैं
बनी-बनाई, अजनबी
कहानियों से बाहर निकलते हैं,
अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।
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शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।
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मेरा आधुनिक विकासशील भारत
यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है
जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।
यह मेरे देश की
पचास प्रतिशत आबादी है
जो सड़क पर अपनी संतान को
जन्म देती है
उनका लालन-पालन करती है
और इस प्राचीन
सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए
नागरिक तैयार करती है।
यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है
जिसके लिए
डिजिटल इंडिया की
संकल्पना की जा रही है।
यह मेरे देश के वे नागरिक हैं
जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास
के विज्ञापनों पर
अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
अभियान चला रहे हैं।
इन सब की सुरक्षा
और विकास के लिए
धरा से गगन तक के
मार्ग बनाये जा रहे हैं।
क्या यह भारत
चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?