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निशा !
दिन भर के थके कदमों का
पड़ाव पल भर।
रोशनी से शुरू होकर
रोशनी तक का सफ़र।
सूर्य की उष्मा से राहत
पल भर।
चांद की शीतलता का
मधुर हास।
चमकते तारों से बंधी आस।
-अंधेरा छंटेगा।
फिर सुबह होगी।
नई सुबह।
यह सफ़र जारी रहेगा।
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हां, मैं हूं कुत्ता
एक कुत्ते ने
फेसबुक पर अपना चित्र देखा,
और बड़बड़ाया
इस इंसान को देखो
फेसबुक पर भी मुझे ले आया।
पता नहीं क्या-क्या कह डालेगा मेरे बारे मे।
दुनिया-जहां में तो
नित्यप्रति मेरी कहानियां
गढ़-गढ़कर समय बिताता है।
पता नहीं कितने मुहावरे
बनाये हैं मेरे नाम से,
तरह तरह की बातें बनाता है।
यह तो शिष्ट-सभ्य,
सुशिक्षित बुद्धिजीवियों का मंच है,
मैं अपने मन की पीड़ा
यहां कह भी तो नहीं सकता।
कोई टेढ़ी पूंछ के किस्से सुनाता है,
तो कोई स्वामिभक्ति के गुण गाता है।
कोई तलुवे चाटने की बात करता है
तो कोई बेवजह ही दुत्कारता है।
किसी को मेरे भाग्य से ईर्ष्या होती है
तो कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए
मुझे लात मारकर चला जाता है।
और महिलाओं के हाथ में
मेरा पट्टा देखकर तो
मेरी भांति ही लार टपकाता है।
बची बासी रोटी डालने से
कोई नहीं हिचकिचाता है।
बस,आज तक
एक ही बात समझ नहीं आई
कि मैं कुत्ता हूं, जानता हूं,
फिर मुझे कुत्ता-कुत्ता कहकर क्यों चिड़ाता है।
और हद तो तब हो गई
जब अपनी तुलना मेरे साथ करने लगता है।
बस, तभी मेरा मन
इस इंसान को
काट डालने का करता है।
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और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
समझ नहीं पाते हैं
कि धरा पर
ये कैसे प्राणी रहते हैं
ज़रा-सा पास-पास बैठे देखा नहीं
कि इश्क, मुहब्ब्त, प्यार के
चर्चे होने लगते हैं।
तोता-मैना
की कहानियां बनाने लगते हैं।
अरे !
क्या तुम्हारे पास नहीं हैं
जिन्दगी के और भी मसले
जिन्हें सुलझाने के लिए
कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है,
सोचना-समझना पड़ता है।
देखो तो,
मौसम बदल रहा है
निकाल रहे हो न तुम
गर्म कपड़े, रजाईयां-कम्बल,
हमें भी तो नया घोंसला बनाना है,
तिनका-तिनका जमाना है,
सर्दी भर के लिए भोजन जुटाना है।
बच्चों को उड़ना सिखाना है,
शिकारियों से बचना बताना है।
अब
हमारी जिन्दगी के सारे फ़लसफ़े तो
तुम्हारी समझ में आने से रहे।
गालिब ने कहा था
ज़माने में
और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवा
और
इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
बस इतना ही समझाना है !!!!
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चिड़िया फूल रंग और मन
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक।
राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक।
सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने।
सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक।
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नदिया से मैंने पूछा
नदिया से मैंने पूछा
कल-कल कर क्यों बहती हो।
बहते-बहते
कभी सिमट-सिमट कर
कभी बिखर-बिखर जाती हो।
कभी मधुर संगीत छेड़ती
कभी विकराल रूप दिखाती हो।
कभी सूखी,
कभी लहर-लहर लहराती हो।
नदिया बोली,
मुझसे क्या पूछ रहे
तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।
पर मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
इसीलिए,
कल-कल की बातें कहती हूं।
समझ सको तो, सम्हल सको तो
रूक कर, ठहर-ठहर कर
सोचो तुम।
बहते-बहते, सिमट-सिमट कर
अक्सर क्यों बिखर-बिखर जाती हूं ।
मधुर संगीत छेड़ती
क्यों विकराल रूप दिखाती हूं।
जब सूखी,
फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।
मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
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बाल-मन की बात
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी., एक पी.सी, एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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उठ बालिके उठ बालिके
सुनसान, बियाबान-सा
सब लगता है,
मिट्टी के इस ढेर पर
क्यों बैठी हो बालिके,
कौन तुम्हारा यहाँ
कैसे पहुँची,
कौन बिठा गया।
इतनी विशाल
दीमक की बांबी
डर नहीं लगता तुम्हें।
द्वार बन्द पड़े
बीच में गहरी खाई,
सीढ़ियाँ न राह दिखातीं
उठ बालिके।
उठ बालिके,
चल घर चल
अपने कदम आप बढ़ा
अपनी बात आप उठा।
न कर किसी से आस।
कर अपने पर विश्वास।
उठ बालिके।
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अंधेरे का सहारा
ज़्यादा रोशनी की चाहत में
सूरज को
सीधे सीधे
आंख उठाकर मत देखना
आंखें चौंधिया जायेंगी।
अंधेरे का अनुभव होगा।
बस ज़रा सहज सहज
अंधेरे का सहारा लेकर
आगे बढ़ना।
भूलना मत
अंधेरे के बाद की
रोशनी तो सहज होती है
पर रोशनी के बाद का
अंधेरा हम सह नहीं पाते
बस इतना ध्यान रखना।
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मन में एक जंगल है
मन में एक जंगल है
विचारों का, भावों का।
एक झंझावात की तरह आते हैं
अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,
तहस-नहस करते हैं
और हवा के झोंके के साथ
अचानक
कहीं दूर उड़ जाते हैं।
कभी शब्द दे पाती हूं
और कभी नहीं।
लिखे शब्द पिघलने लगते हैं
आसमानी बादलों की तरह।
कहीं दूर उड़ जाते हैं
पक्षी की तरह।
हर बार एक कही-अनकही
आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।
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जो रीत गया वह बीत गया
चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो
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इशारों में ही बात हो गई
मेरे हाथ आज लगे
जिन्न और चिराग।
पूछा मैंने
क्या करोगे तुम मेरे
सारे काम-काज।
बोले, खोपड़ी तेरी
क्या घूम गई है
जो हमसे करते बात।
ज्ञात हो चुकी हमको
तुम्हारी सारी घात।
बहुत कर चुके रगड़ाई हमारी।
बहुत लगाये ढक्कन।
किन्तु अब हम
बुद्धिमान हो गये।
बोतल बड़ी-बड़ी हो गई,
लेन-देन की बात हो गई,
न रगड़ाई और न ढक्कन।
बस देता जा और लेता जा।
लाता जा और पाता जा।
भर दे बोतल, काम करा ले।
काम करा ले बोतल भर दे।
इशारों में ही बात हो गई
समझ आ गई तो ठीक
नहीं आई तो
जाकर अपना माथा पीट।