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उपवन में रूप ले रही
कलियों ने पहले से झूम रहे
पुष्पों की आभा देखी
और अपना सुन्दर भविष्य
देखकर मुस्कुरा दीं।
पुष्पों ने कलियों की
मुस्कान से आलोकित
उपवन को निहारा
और अपना पूर्व स्वरूप भानकर
मुदित हुए।
फिर धरा पर झरी पत्तियों में
अपने भविष्य की
आहट का अनुभव किया।
धरा से बने थे
धरा में जा मिलेंगे
सोच, खिलखिला दिये।
फिर स्वरूप लेंगे
मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,
फिर खिलखिलाएंगे।
निर्माण हो या हो अवसान की आहट
होना है तो होना है
रोना क्या खोना क्या
होना है तो होना है।
चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।
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कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन
पायल बजती छन-छनछन
पैरों की अनबन
बूँदों की थिरकन
हाथों से छल-छल
जल में
बनते भंवर-भंवर
हल्की-हल्की छुअन
बूँदों की रागिनी
मन में बजती सरगम।
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अपने आप को खोजती हूं
अपने आप को खोजती हूं
अपनी ही प्रतिच्छाया में।
यह एकान्त मेरा है
और मैं भी
बस अपनी हूं
कोई नहीं है
मेरे और मेरे स्व के बीच।
यह अगाध जलराशि
मेरे भीतर भी है
जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं
जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है
जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है
और मैं हूं और
और है मेरी प्रतिच्छाया
मेरी प्रेरणा
सी मेरी भावनाएं
अपने ही साथ बांटती हूं
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गुम हो जाये चाबी स्कूल की
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी.,एक पी.सी,एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि
बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं
पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं
कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी
स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं
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पुतले बनकर रह गये हैं हम
हां , जी हां
पुतले बनकर रह गये हैं हम।
मतदाता तो कभी थे ही नहीं,
कल भी कठपुतलियां थे
आज भी हैं
और शायद कल भी रहेंगे।
कौन नचा रहा है
और कौन भुना रहा है
सब जानते हैं।
स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।
बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है
जिह्वा को लकवा मार गया है
और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।
फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक
लम्बी सूची है
और यहां जिह्वा खूब चलती है।
किन्तु जब
निर्णय की बात आती है
तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।
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राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे
देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे
इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है
धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे
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खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
शिक्षा की मांग कीजिए, प्रशिक्षण की मांग कीजिए, तभी बात बन पायेगी
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले, कोई नौकरी, न बात कभी बन पायेगी
मन-मन्दिर में न अपनेपन की, न प्रेम-प्यार की, न मधुर भाव की रचना है
द्वेष-कलह,वैर-भाव,मार-काट,लाठी-बल्लम से कभी,कहीं न बात बन पायेगी
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आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
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मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द
सुना है मैंने,
रेत पर घरौंदे नहीं बनते।
धंसते हैं पैर,
कदम नहीं उठते।
.
वैसे ऐसा भी नहीं
कि नामुमकिन हो यह।
सीखते-सीखते
सब सीख जाता है इंसान,
‘गर मज़बूरी हो
या जिद्द।
.
मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द,
और जब जिद्द हो,
तो रेत क्या
और पानी क्या,
घरौंदे भी बनते हैं ,
पैर भी चलते हैं,
और ऐसे ही कारवां भी बनते हैं।