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उपवन में रूप ले रही
कलियों ने पहले से झूम रहे
पुष्पों की आभा देखी
और अपना सुन्दर भविष्य
देखकर मुस्कुरा दीं।
पुष्पों ने कलियों की
मुस्कान से आलोकित
उपवन को निहारा
और अपना पूर्व स्वरूप भानकर
मुदित हुए।
फिर धरा पर झरी पत्तियों में
अपने भविष्य की
आहट का अनुभव किया।
धरा से बने थे
धरा में जा मिलेंगे
सोच, खिलखिला दिये।
फिर स्वरूप लेंगे
मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,
फिर खिलखिलाएंगे।
निर्माण हो या हो अवसान की आहट
होना है तो होना है
रोना क्या खोना क्या
होना है तो होना है।
चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।
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बैठे ठाले
चित्राधारित रचना हास्य
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मैं जिस डाल पर बैठा हूं, उसे ही काट रहा हूं, आपको कोई आपत्ति, कोई कष्ट आपको? नहीं न, तो काटने दीजिए, गिरूंगा तो मैं गिरूंगा, हड्डियां टूटेंगी तो मेरी टूटेंगी, आपको क्या? क्यों अपनी टांग अड़ाते हैं आप किसी और के मामले में। बता दूं कि दूसरों के मामलों में टांग अड़ाने पर भी टांग टूट जाती है।
हा हा! आजकल आरी से पेड़ कौन काटता है भला। आजकल तो मशीने हैं, पलभर में पूरा वृक्ष धराशायी। मैं जानता हूं कि आप क्या कहेंगे। आप कहेंगे कि यह तो मूर्खता प्रदर्शित करने का प्रतीक है कि जिस डाली पर बैठे उसी को काटना। मुहावरा है। किन्तु मूर्खता प्रदर्शित करने की आवश्यकता ही क्या ? प्रदर्शित करना है तो बुद्धिमानी कीजिए, चतुराई कीजिए, दक्षता कीजिए। किसी की भी मूर्खता तो उसके मुंह खोलते ही पता लग जाती है।
और हर समय गम्भीर बात करना ज़रूरी होता है क्या? जानता हूं मैं कि वृक्ष पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ज़रूरी हैं। हमने विकास की आंधी में बहुत कुछ खो दिया है। आधुनिकता के पीछे भाग कर हम अपनी बहुत हानि कर रहे हैं। पर सूखा वृक्ष है तो काटेंगे ही, लकड़ी काम आयेगी और नये वृक्ष लगायेंगे किन्तु आपने तो पता नहीं कितनी कहानियां बना डालीं कि जिस डाल पर बैठा है, उसे ही काट रहा है।
मैं तो आप सबकी कल्पनाशक्ति देख रहा था कि मेरे इस चित्र को देखकर आप क्या सोचते हैं। आप ही इस चित्र को ध्यान से देखकर बताईये ज़रा, मैं इस वृक्ष पर चढ़ा कैसे? न डाली, न सहारा, न सीढ़ी। और लक्कड़हारे की तो मेरी यूनिफ़ार्म भी नहीं है। तो फिर ! प्रतीकात्मक है, मूर्खता प्रदर्शित करने का।
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इंसान के भीतर वृक्ष भाव
एक वृक्ष को बनने में कुछ वर्ष नहीं, दशाब्दियाँ लग जाती हैं। प्रत्येक मौसम झेलता है वह।
प्रकृति स्वयं ही उसे उसकी आवश्यकताएँ पूरी करने देती है यदि मानव उसमें व्यवधान न डाले। अपने मूल रूप में वृक्ष की कोमल-कांत छवि आकर्षित करती है। हरी-भरी लहलहाती डालियाँ मन आकर्षित करती है। रंग-बिरंगे फूल मन मोहते हैं। धरा से उपज कर धीरे-धीरे कोमल से कठोर होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी कठोरता बढ़ती है उसकी उपयोगिता भी बढ़ने लगती है। छाया, आक्सीजन, फल-फूल, लकड़ी, पर्यावरण की रक्षा, सब प्राप्त होता है एक वृक्ष से। किन्तु वृक्ष जितना ही उपयोगी होता जाता है बाहर से उतना ही कठोर भी।
किन्तु क्या वह सच में ही कठोर होता है ? नहीं ! उसके भीतर एक तरलता रहती है जिसे वह अपनी कठोरता के माध्यम से हमें देता है। वही तरलता हमें उपयोगी वस्तुएँ प्रदान करती है। और ठोस पदार्थों के अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा देते हैं यह कठोर वृक्ष जो हमें न तो दिखाई देता है और न ही समझ है बस हमें वरदान मिलता है। यदि इस बात को हम भली-भांति समझ लें तो वृक्ष की भांति हमारा जीवन भी हो सकता है।
और यही मानव जीवन कहानी है।
हर मनुष्य के भीतर कटुता और कठोरता भी है और तरलता एवं कोमलता अर्थात भाव भी। यह हमारी समझ है कि हम किसे कितना समझ पाते हैं और कितनी प्राप्तियाँ हो पाती हैं।
मानव अपने जीवन में विविध मधुर-कटु अनुभवों से गुज़रता है। सामाजिक जीवन में उलझा कभी विनम्र तो कभी कटु हो जाता है उसका स्वभाव। जीवन के कटु-मधुर अनुभव मानव को बाहर से कठोर बना देते है। किन्तु उसके मन की तरलता कभी भी समाप्त नहीं होती, चाहे हम अनुभव कर पायें अथवा नहीं। जिस प्रकार वृक्ष की छाल उतारे बिना उसके भीतर की तरलता का अनुभव नहीं होता वैसे ही मानव के भीतर भी सभी भाव हैं, कोई भी केवल अच्छा या बुरा, कटु अथवा मधुर नहीं होता। बस परख की बात है।
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यह दिल की बात है
कभी दिल है
कभी दिलदार होगा ।
बादलों में
यूं हमारा नाम होगा ।
कभी होती है झड़ी
कभी चांद का रोब-दाब होगा ।
देखो , झांकती है रोशनी ।
कहती है दिलदार से
दीदार होगा ।
कभी टूटते हैं
कभी जुड़ते हैं दिल ।
इस बात का भी
कोई तो जवाबदार होगा ।
ज़रा-सी आह से
पिघल जाते हैं,
ऐसे दिल से दिल लगाकर,
कौन-सा सरोकार होगा ।
बदलते मौसम के आसार हैं ये ।
न दिल लगा
नहीं तो बुरा हाल होगा ।
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कांटों की बुआई में
तीर की जगह तुक्का चलाना आ गया।
झूठ को सच, सच को झूठ बनाना आ गया।
कांटों की बुआई में हाथ बहुत साफ़ है,
किसी की चुभन देख मुस्कुराना आ गया।
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मन भटकता है यहां-वहां
अपने मन पर भी एकाधिकार कहां
हर पल भटकता है देखो यहां-वहां
दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता
लेखन में बिखराव है तभी तो यहां
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छनक-छन तारे छनके
ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया
छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया
सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी
इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया
बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया
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एक मधुर संदेश
प्रतिदिन प्रात में सूर्य का आगमन एक मधुर संदेश देता है
तोड़े न कभी क्रम अपना, मार्ग सुगम नहीं दिखाई देता है
कभी बदली, आंधी, कभी ग्रहण भी नहीं रोक पाते राहों को
मंज़िल कभी दूर नहीं होती, बस लगे रहो, यही संदेश देता है
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हमारा बायोडेटा
हम कविता लिखते हैं।
कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक,
मुक्तक को चतुष्पदी बनाना जानते हैं और ज़रूरत पड़े तो इन सब को गद्य की सभी विधाओं में भी
परिवर्तित करना जानते हैं।
जैसे कृष्ण ने गीता में लिखा है कि वे ही सब कुछ हैं, वैसे ही मैं ही लेखक हूँ ,
मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य पद्य की रचयिता,
कहानी लेखक, प्रकाशक , मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक,
समीक्षक भी मैं ही हूँ ,मैं ही संचालक हूँ , मैं ही प्रशासक हूँ ।
अहं सर्वत्र रचयिते
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झूठे मुखौटे मत चढ़ा
झूठे मुखौटे मत चढ़ा।
असली चेहरा दुनिया को दिखा।
मन के आक्रोश पर आवरण मत रख।
जो मन में है
उसे निडर भाव से प्रकट कर।
यहां डर से काम नहीं चलता।
वैसे भी हंसी चेहरे,
और चेहरे पर हंसी,
लोग ज़्यादा नहीं सह पाते।
इससे पहले
कि कोई उतारे तुम्हारा मुखौटा,
अपनी वास्तविकता में जीओ,
अपनी अच्छाईयों-बुराईयों को
समभाव से समझकर
जीवन का रस पीओे।
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कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।