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तुमने,
मुझसे उम्मीदें की।
मैंने,
तुम्हारे लिए
उम्मीदों के बीज बोये।
फिर, उन पर
डाल दिया पानी।
अब,
बीज नहीं उगे,
तो, मेरा दोष कहां !
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हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
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कुछ और नाम न रख लें
समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
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भीतर के भाव
हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।
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कथा प्रकाश की
बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे
बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे
कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा
बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे
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इंसान की फ़ितरत
देखो रोशनी से कतराने लगे हैं हम
देखो बत्तियां बुझाने में लगे हैं हम
जलती तीली देखकर भ्रमित न होना
देखो सीढ़ियां गिराने में लगे हैं हम
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बस एक हिम्मत की चाह
जीवन बोझ-सा
समस्याएं नाग-सी
तब चाहिए
तुम्हारा साथ
हाथ पकड़ा है
मैं तुम्हें समस्याओं से बचाउं
तुम मेरे साथ
तो जीवन भी बोझ-सा नहीं
बस एक हिम्मत की चाह
होंगे हम साथ-साथ
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चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।
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कयामत के दिन चार होते हैं
कहीं से सुन लिया है
कयामत के दिन चार होते हैं,
और ज़िन्दगी भी
चार ही दिन की होती है।
तो क्या कयामत और ज़िन्दगी
एक ही बात है?
नहीं, नहीं,
मैं ऐसे डरने वाली नहीं।
लेकिन
कंधा देने वाले भी तो
चार ही होते हैं
और दो-दूनी भी
चार ही होते हैं।
और हां,
बातें करने वाले भी
चार ही लोग होते हैं,
एक है न कहावत
‘‘चार लोग क्या कहेंगे’’।
वैसे मुझे अक्सर
अपनी ही समझ नहीं आती।।
बात कयामत की करने लगी थी
और दो-दूनी चार के
पहाड़े पढ़ने लगी।
ऐसे थोड़े ही होता है।
चलो, कोई बात नहीं।
फिर कयामत की ही बात करते हैं।
सुना है, कोई
कोरोना आया है,
आयातित,
कहर बनकर ढाया है।
पूरी दुनिया को हिलाया है
भारत पर भी उसकी गहन छाया है।
कहते हैं,
उसके साथ
छुपन-छुपाई खेल लो चार दिन,
भाग जायेगा।
तुम अपने घर में बन्द रहो
मैं अपने घर में।
ढूंढ-ढूंढ थक जायेगा,
और अन्त में थककर मर जायेगा।
तब मिलकर करेंगे ज़िन्दगी
और कयामत की बात,
चार दिन की ही तो बात है,
तो क्या हुआ, बहुत हैं
ये भी बीत जायेंगे।
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किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी
स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी
मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी
जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
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विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था
जीवन में क्यों कोई हमारे हमराज़ नहीं था
यूं तो चैन था, हमें कोई एतराज़ नहीं था
मन चाहता है कि कोई मिले, पर क्या करें
विश्वास के लायक कहीं कोई मिला नहीं था