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जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है
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देखो किसके कितने ठाठ
एक-दो-तीन-चार
पांच-छः-सात-आठ
देखो किसके कितने ठाठ
इसको रोटी, उसको दूध
किसी को पानी
किसी को भूख
किसकी कितनी हिम्मत
देखें आज
देखो तुम सब
हमरे ठाठ
किके्रट टीम तो बनी नहीं
किस खेल में होते आठ
अपनी टीम बनाएंगे
मौज खूब उड़ायेंगे
सस्ते में सब निपटायेंगे
पढ़ना-लिखना हुआ है मंहगा
बना ले घर में ही टीम
पढ़ोगे-लिखोगे होंगे खराब
खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब
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बहकती हैं पत्तियों पर ओस की बूंदें
छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।
आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।
जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,
बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।
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जीवन की पुस्तकें
कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।
भीतर-बाहर
बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,
बेतरतीब।
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किन्तु जैसे
बूढ़ी हड्डियों में
बड़ा दम होता है,
एक वट-वृक्ष की तरह
छत्रछाया रहती है
पूरे परिवार के सुख-दुख पर।
उनकी एक आवाज़ से
हिलती हैं घर की दीवारें,
थरथरा जाते हैं
बुरी नज़र वाले।
देखने में तो लगते हैं
क्षीण काया,
जर्जर होते भवन-से।
किन्तु उनके रहते
द्वार कभी सूना नहीं लगता।
हर दीवार के पीछे होती है
जीवन की पूरी कहानी,
अध्ययन-मनन
और गहन अनुभवों की छाया।
.
जीवन की इन पुस्तकों को
चिनते, सम्हालते, सजाते
और समझते,
जीवन बीत जाता है।
दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,
किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।
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हादसा
यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)
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भूचाल, बाढ़, सूखा।
सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।
दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।
लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।
बचे घायल, बेघर।
प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।
खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।
विदेशी हाथ।
सरकार का कर्त्तव्य
आंकड़े और न्यायिक जांच।
पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।
चोट और मौत के अनुसार राहत।
विपक्षी दल
बन्द का आह्वान।
फिर दंगे, फिर मौत।
सवा सौ करोड़ में
ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं
हादसा नहीं हुआ करतीं।
हादसा तब हुआ
जब एक नब्बे वर्षीय युवा,
राजनीति में सक्रिय
स्वतन्त्रता सेनानी
सच्चा देशभक्त
सर्वगुण सम्पन्न चरित्र
असमय, बेमौत चल बसा
अस्पताल में
दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
हादसा ! बस उसी दिन हुआ।
देश शोक संतप्त।
देश का एक कर्णधार कम हुआ।
हादसे का दर्द
बड़ा गहरा है
देश के दिल में।
क्षतिपूर्ति असम्भव।
और दवा -
सरकारी अवकाश,
राजकीय शोक, झुके झण्डे
घाट और समाधियां,
गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब
सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।
अब हर वर्ष
इस हादसे का दर्द बोलेगा
देश के दिल में
नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों
और शोक संदेशों के साथ।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को
शांति देना।
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और हम हल नहीं खोजते
बाधाएं-वर्जनाएं
यूं ही बहुत हैं जीवन में।
पहले तो राहों में
कांटे बिछाये जाते थे
और अब देखो
जाल बिछाये जा रहे हैं
मकड़जाल बुने जा रहे हैं
दीवारें चुनी जा रही हैं
बाढ़ बांधी जा रही है
कांटों में कांटे उलझाये जा रहे हैं।
कहीं हाथ न बढ़ा लें
कोई आस न बुन लें
कोई विश्वास न बांध लें
कहीं दिल न लगा लें
कहीं राहों में फूल न बिछा दें
ये दीवारें, बाधाएं, बाढ़, मकड़जाल,
कांटों के नहीं अविश्वास के है
हमारे, आपके, सबके भीतर।
चुभते हैं,टीस देते हैं,नासूर बनते हैं
खून रिसता है
अपना या किसी और का।
और हम
चिन्तित नहीं होते
हल नहीं खोजते,
आनन्दित होते हैं।
पीड़ा की भी
एक आदत हो जाती है
फिर वह
अपनी हो अथवा परायी।
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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लाठी का अब ज़ोर चले
रंग फीके पड़ गये
सत्य अहिंसा
और आदर्शों के
पंछी देखो उड़ गये
कालिमा गहरी छा गई।
आज़ादी तो मिली बापू
पर लगता है
फिर रात अंधेरी आ गई।
निकल पड़े थे तुम अकेले,
साथ लोग आये थे।
समय बहुत बदल गया
लहर तुम्हारी छूट गई।
चित्र तुम्हारे बिक रहे,
ले-देकर उनको बात बने
लाठी का अब ज़ोर चले
चित्रों पर हैं फूल चढ़े
राहें बहुत बदल गईं
सब अपनी-अपनी राह चले
अर्थ-अनर्थ यहां हुआ
समझ तुम्हारे आये न।
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फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं
अपनी संतान के कंधों पर
हमने लाद दिये हैं
अपने अधूरे सपने,
अपनी आशाएं –आकांक्षाएं,
उनके मन-मस्तिष्क पर
ठोंक कर बैठे हैं
अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीलें,
उनकी इच्छाओं-अनच्छिाओं पर
बनकर बैठे हैं हम प्रहरी।
आगे, आगे और आगे
निकल लें।
जितनी दूर निकल सकें,
निकल लें।
सबसे आगे, और आगे, और आगे।
धरा को छोड़
आकाश को निगल ले।
और वे भागने लगे हैं
हमसे दूर, बहुत दूर ।
हम स्वयं ही नहीं जानते
उनके कंधों पर कितना बोझ डालकर
किस राह पर उन्हें ढकेल रहे हैं हम ।
धरा के रास्ते बन्द कर दिये हैं
उनके लिए।
बस पकड़ना है तो
आकाश ही आकाश है।
फिर शिकायत करते हैं
कुछ नहीं कर रही नई पीढ़ी
हमारे लिए ।
फिर उनके कंधों पर बंहगी ढूंढते हैं !!!
कमाल है !!!!
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हंस-हंसकर बीते जीवन क्या घट जायेगा
यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है
हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्या घट जायेगा
गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है
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एकान्त की ध्वनियां
एकान्त काटता है,
एकान्त कचोटता है
किन्तु अपने भीतर के
एकान्त की ध्वनि
बहुत मुखर होती है।
बहुत कुछ बोलती है।
जब सन्नाटा टूटता है
तब कई भेद खोलती है।
भीतर ही भीतर
अपने आप को तलाशती है।
किन्तु हम
अपने आपसे ही डरे हुए
दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं
किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को
नकारते हैं
इसीलिए जीवन भर हारते है।