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गिरगिट की तरह
यहां रंग बदलते हैं लोग।
बस,
बात इतनी सी
कि रंग
कोई और चढ़ा होता है
दिखाई और देता है।
समय पर
हम कहां समझ पाते हैं
स्याह-सफ़ेद में अन्तर।
कब कौन
किस रंग से पुता है
हम देख ही नहीं पाते।
कब कौन
किस रंग में आ जाये
हम जान ही नहीं पाते।
अक्सर काले चश्मे चढ़ाकर
सफ़ेदी ढूंढने निकलते हैं।
रंगों से पुती है दुनिया,
कब किसका रंग उतरे,
और किस रंग का परदा चढ़ जाये
हम कहां जान पाते हैं।
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जीवन में सुख दुख शाश्वत है
सूर्य का गमन भी तो एक नया संदेश देता है
चांदनी छिटकती है, शीतलता का एहसास देता है
जीवन में सुख-दुख की अदला-बदली शाश्वत है
चंदा-सूरज के अविराम क्रम से हमें यह सीख देता है
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पुतले बनकर रह गये हैं हम
हां , जी हां
पुतले बनकर रह गये हैं हम।
मतदाता तो कभी थे ही नहीं,
कल भी कठपुतलियां थे
आज भी हैं
और शायद कल भी रहेंगे।
कौन नचा रहा है
और कौन भुना रहा है
सब जानते हैं।
स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।
बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है
जिह्वा को लकवा मार गया है
और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।
फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक
लम्बी सूची है
और यहां जिह्वा खूब चलती है।
किन्तु जब
निर्णय की बात आती है
तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।
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मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
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मेरी कागज़ की नाव खो गई
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे
पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी,
पलटती थी,
टूट-फूट जाती थी,
भंवर में अटकती थी,
रूक-रूक जाती थी,
एक जाती थी,
एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे
सब अपने थे]
न टूटते थे न फूटते थे,
जीवन की लय
यूं ही बहती जाती थी।
फिर एक दिन
हम बड़े हो गये
सपने भारी-भारी हो गये।
अपने ही नहीं
सबके हो गये।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव
कहां खो गई।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं।
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई
मिल जाये तो लौटा देना।
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जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
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अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
जब कोई मेरी फ़ोटो खींचता है
मुझे ऐसे-वैसे बैठने
पोज़ बनाने के लिए कहता है।
हाँ, कार्य में व्यवधान आता है
मेरी रोज़ी-रोटी पर
सवाल आता है।
कैमरे के सामने पूछते हैं मुझसे
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते
क्या बाप तुम्हारा कमाता नहीं
अपनी कमाई घर लाता नहीं
कहीं शराब तो पीता-पिलाता नहीं
तुम्हारी माँ को मारता-वारता तो नहीं
अनाथ हो या सनाथ
और कितने भाई-बहन हो
ले जायेगी तुम्हें पुलिस पकड़कर
बाल-श्रम के बारे में क्या जानते हो
किसे अपना माई-बाप मानते हो
सरकारी योजनाओं को जानते हो
उनका लाभ उठाते हो
पूछते-पूछते
उनकी फ़ोटू पूरी हो जाती है
दस रुपये पकड़ाते हैं
और चले जाते हैं
मैं उजबुक-सा बना देखता रह जाता हूँ
और काम पर लौट आता हूँ।
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दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
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अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
वैकल्पिक अवसर कहां देती है ज़िन्दगी,
जब चाहे कुछ भी छीन लेती है ज़िन्दगी
भाग्य को नहीं मानती मैं, पर फिर भी
अपना विकराल रूप दिखाती है ज़िन्दगी
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हम श्मशान बनने लगते हैं
इंसान जब मर जाता है,
शव कहलाता है।
जिंदा बहुत शोर करता था,
मरकर चुप हो जाता है।
किन्तु जब मर कर बोलता है,
तब प्रेत कहलाता है।
.
श्मशान में टूटती चुप्पी
बहुत भयंकर होती है।
प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,
मुझे नहीं पता,
किन्तु जब
जीवित और मृत
के सम्बन्ध टूटते हैं,
तब सन्नाटा भी टूटता है।
कुछ चीखें
दूर तक सुनाई देती हैं
और कुछ
भीतर ही भीतर घुटती हैं।
आग बाहर भी जलती है
और भीतर भी।
इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,
नहीं समझ आता,
जब रात-आधी-रात
चीत्कार सुनाई देती है,
सूर्यास्त के बाद
लाशें धधकती हैं,
श्मशान से उठती लपटें,
शहरों को रौंद रही हैं,
सड़कों पर घूम रही हैं,
बेखौफ़।
हम सिलेंडर, दवाईयां,
बैड और अस्पताल का पता लिए,
उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं
और लौटकर पंहुच जाते हैं
फिर श्मशान घाट।
.
फिर चुपचाप
गणना करने लगते हैं, भावहीन,
आंकड़ों में उलझे,
श्मशान बनने लगते हैं।
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इन आंखों का क्या करूं
शब्दों को बदल देने की
कला जानती हूं,
अपनी अभिव्यक्ति को
अनभिव्यक्ति बनाने की
कला जानती हूं ।
पर इन आंखों का क्या करूं
जो सदैव
सही समय पर
धोखा दे जाती हैं।
रोकने पर भी
न जाने
क्या-क्या कह जाती हैं।
जहां चुप रहना चाहिए
वहां बोलने लगती हैं
और जहां बोलना चाहिए
वहां
उठती-गिरती, इधर-उधर
ताक-झांक करती
धोखा देकर ही रहती हैं।
और कुछ न सूझे तो
गंगा-यमुना बहने लगती है।