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आजकल रोशनियां
डराने लगी हैं,
अंधेरे गहराने लगे हैं।
विपदाओं की कड़ी
लम्बी हो रही है।
इंसान से इंसान
डरने लगा है।
ख़ौफ़ भीतर तक
पसरने लगा है।
राहें पथरीली होने लगी हैं,
पहचान मिटने लगी है।
ज़िन्दगी
बेनाम दिखने लगी है।
पर कब चला है इस तरह जीवन।
कब तक चलेगा इस तरह जीवन।
जानते हैं हम,
बादल घिरते हैं
तो बरस कर छंटते भी हैं।
बिजली चमकती है
तो रोशनी भी देती है।
अंधेरों को
परखने का समय आ गया है।
ख़ौफ़ के साये को
तोड़ने का समय आ गया है।
जीवन बस डर से नहीं चलता,
आशाओं को फिर से
सहेजने का समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होने को है,
हाथ बढ़ाओ ज़रा,
हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,
सबको अपना बनाने का
समय आ गया है।
नया सूर्य उदित होगा ही,
अपने लिए तो सब जीते हैं,
औरों के दुख को
अपना बनाने का समय आ गया है।
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कितने सबक देती है ज़िन्दगी
भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।
खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।
धूल-मिट्टी में आनन्द देती
मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।
तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,
धक्का-मुक्की, उठन-उठाई
नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।
आगे-पीछे देखकर चलना
बायें-दायें, सीधे-सीधे
या पलट-पलटकर,
सम्हल-सम्हलकर।
तब भी न जाने
कितने सबक देती है ज़िन्दगी।
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ऐसा अक्सर होता है
ऐसा अक्सर होता है जब हम रोते हैं जग हंसता है
ऐसा अक्सर होता है हम हंसते हैं जग ताने कसता है
न हमारी हंसी देख सकते हो न दुख में साथ होते हो
दुनिया की बातों में आकर मन यूँ ही फ़ँसता है।
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हां हूं मैं बगुला भक्त
यह हमारी कैसी प्रवृत्ति हो गई है
कि एक बार कोई धारणा बना लेते हैं
तो बदलते ही नहीं।
कभी देख लिया होगा
किसी ने, किसी समय
एक बगुले को, एक टांग पर खड़ा
मीन का भोजन ढूंढते
बस उसी दिन से
हमने बगुले के प्रति
एक नकारात्मक सोच तैयार कर ली।
बीच सागर में
एक टांग पर खड़ा बगुला
इस विस्तृत जल राशि
को निहार रहा है
एकाग्रचित्त, वासी,
अपने में मग्न ।
सोच रहा है
कि जानते नहीं थे क्या तुम
कि जल में मीन ही नहीं होती
माणिक भी होते हैं।
किन्तु मैंने तो
अपनी उदर पूर्ति के लिए
केवल मीन का ही भक्षण किया
जो तुम भी करते हो।
माणिक-मोती नहीं चुने मैंने
जिनके लिए तुम समुद्र मंथन कर बैठते हो।
और अपने भाईयों से ही युद्ध कर बैठते हो।
अपने ही भ्राताओं से युद्ध कर बैठे।
किसी प्रलोभन में नहीं रहा मैं कभी।
बस एक आदत सी थी मेरी
यूं ही खड़ा होना अच्छा लगता था मुझे
जल की तरलता को अनुभव करता
और चुपचाप बहता रहता।
तुमने भक्त कहा मुझे
अच्छा लगा था
पर जब इंसानों की तुलना के लिए
इसे एक मुहावरा बना दिया
बस उसी दिन आहत हुआ था।
पर अब तो आदत हो गई है
ऐसी बातें सुनने की
बुरा नहीं मानता मैं
क्योंकि
अपने आप को भी जानता हूं
और उपहास करने वालों को भी
भली भांति पहचानता हूं।
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कल्पना में कमाल देखिए
मन में एक भाव-उमंग, तिरंगे की आन देखिए
रंगों से सजता संसार, कल्पना में कमाल देखिए
घर-घर लहराये तिरंगा, शान-आन और बान से
न सही पताका, पर पताका का यहाँ भाव देखिए
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दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
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नियति
जन्म होता है
मरने के लिए।
लड़कियां भी
जन्म लेती हैं
मरने के लिए।
अर्थात्
जन्म लेकर
मरना है
हर लड़की को।
फिर, जब
मरना तय है
तो क्या फ़र्क पड़ता है
कि वह
किस तरह मरे।
कल की मरती
आज मरे।
कल का क्लेश
आज कटे।
जलकर मरे
या डूबकर मरे।
या पैदा होने से
पहले ही मरे।
जब जन्म होता ही
मरने के लिए है
तो जल्दी जल्दी मरे।
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कुछ सपने
भाव भी तो लौ-से दमकते हैं
कभी बुझते तो कभी चमकते हैं
मन की बात मन में रह जाती है
कुछ सपने आंखों में ही दरकते हैं
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मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।
चौराहे पर रीता, बैठक में मीता
दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता
वन वन सीता,
कहती है
रावण आओ, मुझे बचाओ
अपहरण कर लो मेरा
अशोक वाटिका बनवाओ।
ऋषि मुनियों की, विद्वानों की
बलशाली बाहुबलियों की
पितृभक्तों-मातृभक्तों की
सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की
अगणित गाथाएं हैं।
वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी
धर्मों के नायक और गायक
भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी
धर्मों के गायक और नायक
वचनों से भारी।
कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं
नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।
नाक काट लो, देह बांट लो
संदेह करो और त्याग करो।
वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।
श्रापित कर दो, शिला बना दो।
मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।
कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।
देवी बना दो, पूजा कर लो
विसर्जित कर दो।
हरम सजा लो, भोग लगा लो।
नाच नचा लो, दुकान सजा लो।
भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।
बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।
मूर्ख बहुत था रावण।
जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।
विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी
ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।
न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।
पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं
दासी बना लूं
बिना स्वीकृति कैसे छू लूं
सोचा करता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
सुरक्षा दी, सुविधाएं दी
इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।
दूर दूर रहता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी
निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,
असुर बुद्धि था रावण।
पर औरत को औरत माना
मूर्ख बहुत था रावण।
अपमान हुआ था एक बहन का
था लगाया दांव पर सिहांसन।
राजा था, बलशाली था
पर याचक बन बैठा था रावण
मूर्ख बहुत था रावण।
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दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
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अब कोई हमसफ़र नहीं होता
प्रार्थनाओं का अब कोई असर नहीं होता।
कामनाओं का अब कोई
सफ़र नहीं होता।
सबकी अपनी-अपनी मंज़िलें हैं ,
और अपने हैं रास्ते।
सरे राह चलते
अब कोई हमसफ़र नहीं होता।
देखते-परखते निकल जाती है
ज़िन्दगी सारी,
साथ-साथ रहकर भी ,
अब कोई बसर नहीं होता।
भरोसे की तो हम
अब बात ही नहीं करते,
अपने और परायों में
अब कुछ अलग महसूस नहीं होता।