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धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल
हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल
कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला
तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल
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लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
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तब विचार अच्छे बनते हैं
बीमारी एक बड़ी है आई
साफ़ सफ़ाई रखना भाई
कूड़ा-करकट न फै़लाना
सुंदर-सुंदर पौधे लाना
बगिया अपनी खूब खिलाना
हाथों को साफ़ है रखना
बार-बार है धोना
मुंह, नाक, आंख न छूना
घर में रहना सुन लो ताई
मुंह को रखना ढककर तुम
हाथों की दूरी है रखनी
दूर से सबसे बात है करनी
प्लास्टिक का उपयोग न करना
घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना
जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं
तब विचार अच्छे बनते हैं
स्वच्छ अभियान बढ़ायेंगें
देश का नाम चमकाएंगें।
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आंखों देखी दुनिया
कथा है
कि मिट्टी खाने पर
यशोदा ने कृष्ण को
मुँह खोलकर
दिखाने के लिए कहा था
और यशोदा ने
कृष्ण के मुँह में
ब्रह्माण्ड के दर्शन किये थे।
कुछ ऐसा ही ब्रह्माण्ड
हमारी आंखों के भीतर भी है
जिसे हम देख नहीं पाते,
किसी और को क्या दिखाना
हम स्वयं ही
समझ भी नहीं पाते।
बड़ी प्रचलित कहावत है
आंखों देखी दुनिया।
किन्तु आश्चर्य कि
हम दुनिया को
कभी भी खुली आंखों से
देख नहीं पाते।
जब भी दुनिया को समझना होता है
हम आंखें बन्द कर लेते हैं
और शिकायत करते हैं
हमारी समझ से बाहर है यह दुनिया।
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चाय सुबह मिले या शाम को
सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।
एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।
ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,
कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?
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सच आज लिख ज़रा
जीवन का हर सच, आज लिख ज़रा
झूठ को समझकर, आज लिख ज़रा
न डर किसी से, आज कोई क्या कहे
राज़ खोल दे आज, हर बात लिख ज़रा
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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जब नर या कुंजर कहा गया
महाभारत का युद्ध पलट गया जब नर या कुंजर कहा गया।
गज-गामिनी, मदमस्त चाल कहने वाला कवि आज कहां गया।
नहीं भाते इसे मानव-निर्मित वन-अभयारण्य, जल-स्त्रोत यहां।
मुक्त जीव, जब मूड बना, तब मनमौजी हर की पौड़ी नहा गया।
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चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट
चिटखनियों, कुण्डों
और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।
जंग खाया हुआ सब।
पुराना और अर्थहीन।
कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे
ये पुरातात्विक पहरेदार।
चाहती हूं
उखाड़ फेंकूं इन सबको।
बदल देना चाहती हूं
सब पल भर में ।
औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।
पर मैं ! विवश !
कपाट को कपाट के रूप में
प्रयोग करने में असमर्थ।
मेरे औज़ार छोटे
पहरेदार बड़े, मंजे हुए।
फिर इन्हें जंग भी पसन्द है
और अपना टेढ़ा टूटापन भी।
मेरे औज़ार इन्हें
विपक्ष का समझौता लगते हैं।
ताज़ी हवा को ये
घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें
विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।
इनका कहना है
कि कपाट खोल का प्रयास
हमारा षड्यन्त्र है।
पुरातात्विक अवशेषों,
इतिहास और संस्कृति को
नष्ट कर देने का।
पर अद्भुत तो यह
कि ये पुरातात्विक अवशेष
इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक
बन्द कपाटों के भीतर भी
बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।
ज़मीन के भीतर भी
और ज़मीन के बाहर भी।
वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे
कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया
तेल नहीं दिया गया इनमें
तो स्वयं ही काट डालेगा
इन्हें एक दिन।
और अनजाने में ही
बन्द कपाटों पर
इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।
कपाट खोलने
बहुत ज़रूरी हो गये हैं।
क्योंकि, हम सब
बाहर होकर भी कहीं न कहीं
कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।
अत: मैंने सोच लिया है
कि यदि औज़ार काम नहीं आये
तो मैं दीमक बनकर
कपाटों पर लग जाउंगी।
न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही
कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।
पहरेदार समझेंगे
उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।
फिर एक दिन
पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे
और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां
पुरानी दीवारें
सब भरभराकर
गिर जायेंगे
कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।
फिर रोशनी ही रोशनी
नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी
सब मिलेगा एक दिन
सब बदलेगा एक दिन।
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मन में विषधर पाले
विषधर तो है !
लेकिन देखना होगा,
विष कहां है?
आजकल लोग
परिपक्व हो गये हैं,
विष निकाल लिया जाता है,
और इंसान के मुख में
संग्रहीत होता है।
तुम यह समझकर
नाग को मारना,
कुचलना चाहते हो,
कि यही है विषधर
जो तुम्हें काट सकता है।
अब न तो
नाग पकड़ने वाले रह गये,
कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,
न नाग पंचमी पर
दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।
मन में विषधर पाले
ढूंढ लो चाहे कितने,
मिल जायेंगे चाहने वाले।
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मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार
काल की रेखाओं में
सुप्त होकर रह गये थे
मेरे मन के भाव।
दूरियों ने
मन रिक्त कर दिया था
सिक्त कर दिया था
आहत भावनाओं ने।
बसन्त की गुलाबी हवाएँ
उन्मादित नहीं करतीं थीं
न सावन की घटाएँ
पुकारती थीं
न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।
कोई भाव
नहीं आता था मन में
मधुर-मधुर रिमझिम से।
अपने एकान्त में
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कोई भी पुकार।
.
किन्तु अनायास
मन में कुछ राग बजे
आँखों में झिलमिल भाव खिले
हुई अंगुलियों में सरसराहट
हृदय प्रकम्पित हुआ,
सुर-साज सजे।
तो क्या
वह लौट आया मेरे जीवन में
जिसे भूल चुकी थी मैं
और कौन देता
मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झंकार।