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सोचती कुछ और हूं, समझती कुछ और हूं, लिखती कुछ और हूं
बहकते हैं मन के उद्गार, भीगते हैं नमय, तब बोलती कुछ और हूं
जानती हूं धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में
देखती कुछ और हूं, दिखाती कुछ और हूं, अनुभव करती कुछ और हूं
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इसे कहते हैं एक झाड़ू
कभी थामा है झाड़ू हाथ में
कभी की है सफ़ाई अंदर-बाहर की
या बस एक फ़ोटो खिंचवाई
और चल दिये।
साफ़ सड़कों की सफ़ाई
साफ़ नालियों की धुलाई
इन झकाझक सफ़ेद कपड़ों पर
एक धब्बा न लगा।
कभी हलक में हाथ डालकर
कचरा निकालना पड़े
तो जान जाती है।
कभी दांत में अटके तिनके को
तिनके से निकालना पड़े तो
जान हलक में अटक जाती है।
हां, मुद्दे की बात करें,
कल को होगी नीलामी
इस झाड़ू की,
बिकेगा लाखों-करोड़ों में
जिसे कोई काले धन का
कचरा जमा करने वाला
सम्माननीय नागरिक
ससम्मान खरीदेगा
या किसी संग्रहालय में रखा जायेगा।
देखेगी इसे अगली पीढ़ी
टिकट देकर, देखो-देखो
इसे कहते हैं एक झाड़ू
पिछली सदी में
साफ़ सड़कों पर कचरा फैलाकर
साफ़ नालियों में साफ़ पानी बहाकर
एक स्वच्छता अभियान का
आरम्भ किया गया था।
लाखों नहीं
शायद करोड़ों-करोड़ों रूपयों का
अपव्यय किया गया था
और सफ़ाई अभियान के
वास्तविक परिचालक
पीछे कहीं असली कचरे में पड़े थे
जिन्होंने अवसर पाते ही
बड़ों-बड़ों की कर दी थी सफ़ाई
किन्तु जिन्हें अक्ल न आनी थी
न आई !!!!!
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हम सब तो बस बन्दर हैं
नाचते तो सभी हैं
बस
इतना ही पता नहीं लगता
कि डोरी किसके हाथ में है।
मदारी कौन है और बन्दर कौन।
बहुत सी गलतफहमियां रहती हैं मन में।
खूब नाचते हैं हम
यह सोच कर , कि देखों
कैसा नाच नचाया हमने सामने वाले को।
लेकिन बहुत बाद में पता लगता है कि
नाच तो हम ही रहे थे
और सामने वाला तो तमाशबीन था।
किसके इशारे पर
कब कौन नाचता है
और कौन नचाता है पता ही नहीं लगता।
इशारे छोड़िए ,
यहां तो लोग
उंगलियों पर नचा लेते हैं
और नाच भी लेते हैं।
और भक्त लोग कहते हैं
कि डोरी तो उपर वाले के हाथ में है
वही नचाता है
हम सब तो बस बन्दर हैं।
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मौत की दस्तक
कितनी
सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।
खुली हवाओं में सांस लेते,
जैसी भी मिली है
जी रहे थे ज़िन्दगी।
कभी ठहरी-सी,
कभी मदमाती, हंसाती,
छूकर, मस्ती में बहती,
कभी रुलाती,
हवाओं संग
लहराती, गाती, मुस्काती।
.
पर इधर
सांसें थमने लगी हैं।
हवाओं की
कीमत लगने लगी है।
आज हवाओं ने
सांसों की कीमत बताई है।
जिन्दगी पर
पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।
मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।
रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,
कीमत मांगती हैं सांसें।
अपनों की सांसें चलाने के लिए
हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।
.
शायद हम ही
बदलती हवाओं का रुख
पहचान नहीं पाये,
इसीलिए हवाएं
आज
हमारी परीक्षा ले रही हैं।
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नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।
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झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
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रिश्तों के तो माने हैं
पेड़ सूखे तो क्या
सावन रूठे तो क्या
पत्ते झरे तो क्या
कांटे चुभे तो क्या।
हम भूले नहीं
अपना बसेरा।
लौट लौट कर आयेंगे
बसेरा यहीं बसायेंगे
तुम्हें न छोड़कर जायेंगे।
दु:ख सुख तो आने जाने हैं।
पर रिश्तों के तो माने हैं।
जब तक हैं
तब तक तो
इन्हें निभायेंगे।
बसेरा यहीं बसायेंगे।
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ख्वाहिशों की लकीर
ख्वाहिशों की एक
लम्बी-सी लकीर होती है
ज़िन्दगी में
आप ही खींचते हैं
और आप ही
उस पर दौड़ते-दौड़ते
उसे मिटा बैठते है।
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अपनापन
जब किसी अपने
या फिर
किसी अजनबी के साथ
समय का
अपनत्व होने लगता है,
तब जीवन की गाड़ी
सही पहियों पर
आप ही दौड़ने लगती है,
और गंतव्य तक
सुरक्षित
लेकर ही जाती है।
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जीवन संघर्ष
प्रदर्शन नहीं, जीवन संघर्ष की विवशता है यह
रोज़ी-रोटी और परवरिश का दायित्व है यह
धूप की माया हो, या हो आँधी-बारिश, शिशिर
कठोर धरा पर निडर पग बढ़ाना, जीवन है यह
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अनजान राही
एक अनजान राही से
एक छोटी-सी
मुस्कान का आदान-प्रदान।
ज़रा-सा रुकना,
झिझकना,
और देखते-देखते
चले जाना।
अनायास ही
दूर हो जाती है
जीवन की उदासी
मिलता है असीम आनन्द।