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चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
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रंग-बिरंगी ज़िन्दगी
इन पत्तों में रंग-बिरंगी दिखती है ज़िन्दगी
इन पत्तों-सी उड़ती-फिरती है ये जिन्दगी
कब झड़े, कब उड़े, हुए रंगहीन, क्या जानें
इन पत्तों-सी धरा पर उतार लाती है जिन्दगी।
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ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं
बहुत कही जाती है एक बात
कि जब
रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,
नहीं आसान होता
उन्हें खोलना, सुलझाना।
कुछ न कुछ निशान तो
छोड़ ही जाती हैं।
लेकिन सच कहूं
मुझे अक्सर लगता है,
जीवन में
कुछ बातों में
गांठ बांधना भी
ज़रूरी होता है।
टूटी डोर को भी
हम यूं ही नहीं जाने देते
गांठे मार-मारकर
सम्हालते हैं,
जब तक सम्हल सके।
ज़िन्दगी कहीं
उससे सस्ती तो नहीं,
फिर क्यों नहीं कोशिश करते,
यहां भी कभी-कभार,
या बार-बार।
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हंस-हंसकर बीते जीवन क्या घट जायेगा
यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है
हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्या घट जायेगा
गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है
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बचाकर रखी है भीतर तरलता
कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें जमाये रखता है।
न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है।
बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,
धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है ।
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भावों की छप-छपाक
यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।
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बस जीवन बीता जाता है
सब जीवन बीता जाता है ।
कुछ सुख के कुछ दुख के
पल आते हैं, जाते हैं,
कभी धूप, कभी झड़़ी ।
कभी होती है घनघोर घटा,
तब भी जीवन बीता जाता है ।
कभी आस में, कभी विश्वास में,
कभी घात में, कभी आघात में,
बस जीवन बीता जाता है ।
हंसते-हंसते आंसू आते,
रोते-रोते खिल-खिल करते ।
चढ़़ी धूप में पानी गिरता,
घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।
फिर भी जीवन बीता जाता है ।
नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता
बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।
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शब्द में अभिव्यक्ति हो
मान देकर प्रतिमान की आशा क्यों करें
दान देकर प्रतिदान की आशा क्यों करें
शब्द में अभिव्यक्ति हो पर भाव भी रहे
विश्वास देकर आभार की आशा क्यों करें
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अनुभव की बात है
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।
किस्मत साथ दे ,
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी ,
लेकिन कभी-कभी
एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।