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इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
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जिन्दगी के अफ़साने
लहरों पर डूबेंगे उतरेंगे, फिर घाट पर मिलेंगे
झंझावात है, भंवर है सब पार कर चलेंगे
मत सोच मन कि साथ दे रहा है कोई या नहीं
बस चलाचल,जिन्दगी के अफ़साने यूं ही बनेंगे
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उनकी यादों में
क्यों हमारे दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
उनकी यादों में जीयेंगे, उनकी यादों में मर जायेंगे
मरने की बात न करना यारो, जीने की बात करें
दिल के आशियाने में उनकी एक तस्वीर सजायेंगे।
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सपनों में जीने लगते हैं
लक्ष्य जितना सरल दिखता है
राहें
उतनी ही कठिन होने लगती हैं।
हमें आदत-सी हो जाती है
सब कुछ को
बस यूं ही ले लेने की
अभ्यास और प्रयास
की आदत छोड़ बैठते हैं
सपनों में जीने लगते हैं
लगता है
बस
हाथ बढ़ाएंगे
और चांद पकड़ लेंगे
अपने में खोये
ग्रहण और अमावस को
समझ नहीं पाते हम
सपनों में जीते
चांद को ही दोष देते हैं
सही राह नहीं पकड़ पाते हम।
-
लक्ष्य कठिन हो तो
राहें
आप ही सरल हो जाती हैं
क्योंकि तब हम समझ पाते हैं
चांद की दूरियां
और ग्रहण-अमावस का भाव
जीवन में।
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दिल आजमाने में लगे हैं
अब गुब्बारों में दिल सजाने लगे हैं
उनकी कीमत हम लगाने लगे हैं
पांच-सात रूपये में ले जाईये मनचाहे
फुलाईये, फोड़िए
या यूं ही समय बिताने में लगे हैं
मायूसे दिल की ओर तो कोई देखता ही नहीं
सोने चांदी के भाव अब लगाने लगे हैं
दिल कहां, दिलदार कहां अब
बातें करते बहुत
पर असल ज़िन्दगी में टांके लगाने लगे हैं
कुछ तुम दीजिए, कुछ हमसे लीजिए
पर न फोड़ना इस दिल को
न काटना इसे
असलियत निकल आयेगी
न खून बहेगा, न आस आहें भरेंगी
बस रोंआ-रोंआ बिखरेगा
सरकार ने प्लास्टिक बन्द कर दिया है
बस इतनी सी बात हम बताने में लगे हैं
समझ आया हो कुछ, तो ठीक
नहीं तो हम
कहीं और दिल आजमाने में लगे हैं।
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दीप तले अंधेरा ढूंढते हैं हम
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
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वर्षा ऋतु पर हाईकू
पानी बरसा
चांद-सितारे डूबे
गगन हंसा
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पानी बरसा
धरती भीगी-भीगी
मिट्टी महकी
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पानी बरसा
अंकुरण हैं फूटे
पुष्प महके
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पानी बरसा
बूंद-बूंद टपकती
मन हरषा
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पानी बरसा
अंधेरा घिर आया
चिड़िया फुर्र
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पानी बरसा
मन है आनन्दित
तुम ठिठुरे
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गीत मधुर हम गायेंगे
गीत मधुर हम गायेंगे
गई थी मैं दाना लाने
क्यों बैठी है मुख को ताने।
दो चींटी, दो पतंगे,
तितली तीन लाई हूं।
अच्छे से खाकर
फिर तुझको उड़ना
सिखलाउंगी।
पानी पीकर
फिर सो जाना,
इधर-उधर नहीं है जाना।
आंधी-बारिश आती है,
सब उजाड़ ले जाती है।
नीड़ से बाहर नहीं है आना।
मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।
देती है वो चावल-रोटी
कभी-कभी देर तक सोती।
कई दिन से देखा न उसको,
द्वार उसका खटखटाउंगी,
हाल-चाल पूछकर उसका
जल्दी ही लौटकर आउंगी।
फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,
गीत मधुर हम गायेंगे।
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कोल्हू के बैल सरकारी मेहमान हो गये हैं
कोल्हू के बैलों की
आजकल
नियुक्ति बदल गई है,
कुछ कार्यविधि भी।
गांवों से शहरों में
विस्थापित होकर
सरकारी मेहमान हो गये हैं।
अब वे पिसते नहीं
पीसते हैं तेल।
वे किस-किसका तेल निकालते हैं
पता नहीं।
यह भी पता नहीं लग पा रहा
कि कौन-सा तेल निकालते हैं।
वैसे तो पिछले 18 दिन से
चर्चा में है कोई तेल,
वही निकाल रहे हैं
या कोई और।
एक समिति का गठन
कर लिया गया है जांच के लिए।
पर कोई भी तेल निकालें
अन्ततः
निकलना तो हमारा ही है।
किन्तु ध्यान रहे
पीपा लेकर मत आ जाना
भरने के लिए।
इस तेल से रोटी न बना डालना,
क्योंकि, अभी सरकारी जांच जारी है,
कोई विदेशी सामान न लगा हो कोल्हू में।
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तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
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ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।