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दीवारें
एक नाम है
पूरे जीवन का ।
हमारे साथ
जीती हैं पूरा जीवन।
सुख-दुख, अपना-पराया
हंसी-खुशी या आंसू,
सब सहेजती रहती हैं
ये दीवारें।
सब सुनती हैं,
देखती हैं, सहती हैं,
पर कहती नहीं किसी से।
कुछ अर्थहीन रेखाएं
अंगुलियों से उकेरती हूं
इन दीवारों पर।
पर दीवारें
समझती हैं मेरे भाव,
मिट्टी दरकने लगती है।
कभी गीली तो कभी सूखी।
दरकती मिट्टी के साथ
कुछ आकृतियां
रूप लेने लगती हैं।
समझाती हैं मुझे,
सहलाती हैं मेरा सर,
बहते आंसुओं को सोख लेती हैं।
कभी कुछ निशान रह जाते हैं,
लोग समझते हैं,
कोई कलाकृति है मेरी।
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
-
रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
-
देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
-
फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
-
यही ज़िन्दगी है।
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जग में न मिला अपनापन
सुख के दिन बीते, दुख के बीहड़ में नहीं दिखता अपनापन।
अपने सब दूर हुए, दृग तरसें, ढूंढे जग में न मिला अपनापन।
द्वार बन्द मिले, पहचान खो गई, दूर तलक न मिला कोई,
सत्य को जानिए, आप ही बनिए हर हाल में अपना संकटमोचन।
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विचलित करती है यह बात
मां को जब भी लाड़ आता है
तो कहती है
तू तो मेरा कमाउ पूत है।
पिता के हाथ में जब
अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं
तो एक बार तो शर्म और संकोच से
उनकी आंखें डबडबा जाती हैं
फिर सिर पर हाथ फेरकर
दुलारते हुए कहते हैं
मुझे बड़ा नाज़ है
अपने इस होनहार बेटे पर।
किन्तु
मुझे विचलित करती है यह बात
कि मेरे माता पिता को जब भी
मुझ पर गर्व होता है
तो वे मुझे
बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं
बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।
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बांसुरी छोड़ो आंखें खोलो
बांसुरी छोड़ो, आंखें खोलो,
ज़रा मेरी सुनो।
कितने ही युगों में
नये से नये अवतार लेकर
तुमने
दुष्टों का संहार किया,
विश्व का कल्याण किया।
और अब इस युग में
राधा-संग
आंख मूंदकर निश्चिंत बैठे हो,
मानों सतयुग हो, द्वापर युग हो
या हो राम-राज्य।
-
अथवा मैं यह मान लूं,
कि तुम
साहस छोड़ बैठे हो,
आंख खोलने का।
क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक युग के दुष्ट
रूप बदलकर,
इस युग में संगठित होकर,
तुमसे पहले ही अवतरित हो चुके हैं,
नाम-ग्राम-पहचान सब बदल चुके हैं,
निडर।
क्योंकि वे जानते हैं,
तुम्हारे आयुध पुराने हो चुके हैं,
तुम्हारी सारी नीतियां,
बीते युगों की बात हो चुकी हैं,
और कोई अर्जुन, भीम नहीं हैं यहां।
अत: ज़रा संम्हलकर उठना।
वे राह देख रहे हैं तुम्हारी
दो-दो हाथ करने के लिए।
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समझाने की बात नहीं
आजकल न जाने क्यों
यूं ही
आंख में पानी भर आता है।
कहीं कुछ रिसता है,
जो न दिखता है,
न मन टिकता है।
कहीं कुछ जैसे
छूटता जा रहा है पीछे कहीं।
कुछ दूरियों का एहसास,
कुछ शब्दों का अभाव।
न कोई चोट, न घाव।
जैसे मिट्टी दरकने लगी है।
नींव सरकने लगी है।
कहां कमी रह गई,
कहां नमी रह गई।
कई कुछ बदल गया।
सब अपना,
अब पराया-सा लगता है।
समझाने की बात नहीं,
जब भीतर ही भीतर
कुछ टूटता है,
जो न सिमटता है
न दिखता है,
बस यूं ही बिखरता है।
एक एहसास है
न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।
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मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है
बड़ी देर से निहार रही हूं
इस चित्र को]
और सोच रही हूं
क्या ये सास-बहू हैं
टैग ढूंढ रही हूं
कहां लिखा है
कि ये सास-बहू हैं।
क्यों सबको
सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।
मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती
या दादी-पोती।
नाराज़ दादी अपनी पोती से
करती है इसरार
मैं भी चलूंगी साथ तेरे
मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे
बहुत कर लिया चैका-बर्तन
मुझको भी माॅडल बनना है।
बूढ़ी हुई तो क्या
पढ़ा था मैंने अखबारों में
हर उमर में अब फैशन चलता है]
ले ले मुझसे चाबी-चैका]
मुझको
विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।
चलना है तो चल साथ मेरे
तुझको भी सिखला दूंगी
कैसे करते कैट-वाक,
कैसे साड़ी में भी सब फबता है
दिखलाती हूं तुझको,
सिखलाती हूं तुझको
इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।
चल साथ मेरे
मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।
दे देना दो लाईक
और देना मुझको वोट
प्रथम आने का जुगाड़ करना है,
अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।
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जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
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सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
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यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
जीवन ले लेती हैं।
जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
या किसी से
खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
गांठों की रिक्तता,
या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।
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ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना
मेरा अपना मन है।
बताने की बात तो नहीं,
फिर भी मैंने सोचा
आपको बता दूं
कि मेरा अपना मन है।
आपको अच्छा लगे
या बुरा,
आज,
मैंने आपको बताना
ज़रूरी समझा कि
मेरा अपना मन है।
यह बताना
इसलिए भी ज़रूरी समझा
कि मैं जैसी भी हूॅं,
अच्छी या बुरी,
अपने लिए हूॅं
क्योंकि मेरा अपना मन है।
यह बताना
इसलिए भी
ज़रूरी हो गया था
कि मेरा अपना मन है,
कि मैं अपनी कमियाॅं
जानती हूॅं
नहीं जानना चाहती आपसे
क्योंकि मेरा अपना मन है।
जैसी भी हूॅं, जो भी हूॅं
अपने जैसी हूॅं,
क्योंकि मेरा अपना मन है।
चाहती हू
किसी की कमियाॅं न देखूॅं
बस अपनी कमियाॅं निकालती रहूॅं
क्योंकि मेरा अपना मन है।