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मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
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और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
आज ताज
स्वयं अपने साये में
बैठा है
डूबते सूरज की चपेट में।
शायद पलट रहा है
अपने ही इतिहास को।
निहारता है
अपनी प्रतिच्छाया,
कब, किसने,
क्यों निर्माण किया था मेरा।
एक कब्र थी, एक कब्रगाह।
प्रदर्शन था
सत्ता का, मोह का, धन का
अधिकार का
और शायद प्रेम का।
अथाह जलराशि में
न जाने क्या-क्या समाहित।
डूबता है मन, डूबते हैं भाव
काल के साथ
बदलते हैं अर्थ।
और हम यूं ही
लिखने बैठ जाते हैं कविता,
प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की
और वेदना की।
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घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
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न समझे हम न समझे तुम
सास-बहू क्यों रूठ रहीं
न हम समझे न तुम।
पीढ़ियों का है अन्तर
न हम पकड़ें न तुम।
इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,
किसका मन आहत होता,
करता है कौन,
न हम समझें न तुम।
शिक्षा बदली, रीति बदली,
न बदले हम-तुम।
कौन किसको क्या समझाये,
न तुम जानों न हम।
रीतियों को हमने बदला,
संस्कारों को हमने बदला,
नया-नया करते-करते
क्या-क्या बदल डाला हमने,
न हम समझे न तुम।
हर रिश्ते में उलझन होती,
हर रिश्ते में कड़वाहट होती,
झगड़े, मान-मनौवल होती,
पर न बात करें,
न जाने क्यों,
हम और तुम।
जहां बात नारी की आती,
बढ़-बढ़कर बातें करते ,
हास-परिहास-उपहास करें,
जी भरकर हम और तुम।
किसकी चाबी किसके हाथ
क्यों और कैसे
न जानें हम और न जानें हो तुम।
सब अपनी मनमर्ज़ी करते,
क्यों, और क्या चुभता है तुमको,
न समझे हैं हम
और क्यों न समझे तुम।
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चाहतों का अम्बार दबा है
मन के भीतर मन है, मन के भीतर एक और मन
खोल खोल कर देखती हूं कितने ही तो हो गये मन
इस मन के किसी गह्वर में चाहतों का अम्बार दबा है
किसको रखूं, किसको छोड़ूं नहीं बतलाता है रे मन।
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मोती बनीं सुन्दर
बूँदों का सागर है या सागर में बूँदें
छल-छल-छलक रहीं मदमाती बूँदें
सीपी में बन्द हुईं मोती बनीं सुन्दर
छू लें तो मानों डरकर भाग रही बूँदें
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थक गई हूं इस बनावट से
जीवन में
और भी बहुत रोशनियां हैं
ज़रा बदलकर देखो।
सजावट की
और भी बहुत वस्तुएं हैं
ज़रा नज़र हटाकर देखो।
प्रेम, प्रीत, अश्रु, सजन
विरह, व्यथा, श्रृंगार,
इन सबसे हटकर
ज़रा नज़र बदलकर देखो,
थक गई हूं
इस बनावट से
ज़रा मुझे भी
आम इंसान बनाकर देखो।
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अपना मान करना सीख
आधुनिकता के द्वार पर खड़ी नारी
कहने को आकाश छू रही है
पाताल नाप रही है
पुरुषों के साथ
कंधे से कंधा मिलाकर
चलने की शान मार रही है
घर-बाहर दोनों मोर्चों पर
जीतती नज़र आ रही है।
अपने अधिकारों की बात करती
कहीं भी कमतर
नज़र न आ रही है।
किन्तु यहां
क्यों मौन साध रही है?
न मोम की गुड़िया है,
न लाचार, अपंग।
फिर क्यों इस मोर्चे पर
हर बार
पराजित-सी हार रही है।
.
पाखण्डों और परम्पराओं में
भेद करना सीख।
अपने हित में
अपने लिए बात करना सीख।
रूढ़ियों और रीतियों में
पहचान करना सीख।
अपनी कोमल-कान्त छवि से
बाहर निकल
गलत-सही में भेद करना सीख।
आवाज़ उठा
अपने लिए निर्णय लेना सीख।
सिर उठा,
आंख तरेर, आंख दिखा
आंख से आंख मिला
न डर।
तर्क कर, वितर्क कर
दो की चार कर
अपनी राहें आप नाप
हो निडर।
अपने कंधे पर अपना हाथ रख
अपने हाथ में अपना हाथ ले
न डर।
सब बदल गये, सब बदल गया।
तू भी बदल।
अपना मान करना सीख।
अपना मान रखना सीख।
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एक डर में जीते हैं हम
उन्नति के शिखर पर बैठकर भी
अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,
पता नहीं लगता
क्या खोया
और क्या, कैसे पाया।
एक डर में जीते हैं,
न जाने कहां
पांव फिसल जायें
और
आरम्भ करना पड़े
एक नया सफ़र।
अपनी ही सफ़लताओं का
आनन्द नहीं लेते हम।
एक डर में जीते हैं हम।
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सुना है अच्छे दिन आने वाले हैं
सुना है
किसी वंशी की धुन पर
सारा गोकुल
मुग्ध हुआ करता था
ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां
नृत्य-मग्न हुआ करते थे।
वे
हवाओं से बहकने वाले
वंशी के सुर
आज लाठी पर अटक गये
जीवन की धूप में
स्वर बहक गये
नृत्य-संगीत की गति
ठहर-ठहर-सी गई
खिलखिलाती गति
कुछ रूकी-सी
मुस्कानों में बदल गई
दूर कहीं भविष्य
देखती हैं आंखें
सुना है
कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं
क्यों इस आस में
बहकती हैं आंखें
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आशाओं का जाल
जो है वह नहीं,
जो नहीं है,
उसकी ही प्रतीक्षा में
विचलित रहता है मन।
शिशिर में ग्रीष्म ,
और ग्रीष्म में चाहिए झड़ी।
जी जलता है आशाओं के जाल में।
देता है जीवन दिल खोलकर,
बस हम पकड़ते ही नहीं।
पकड़ते नहीं जीवन के
लुभावने पलों को ।
एक मायावी संसार में जीते हैं,
और-और की आस में।
और इस और-और की आस में,
जो मिला है
उसे भी खो बैठते हैं।
आत्माओं का मिलन चाहते हैं,
और सम्बन्धों को संवारते नहीं।