Share Me
दादाजी से गुड़िया बोली,
स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।
दादाजी को गुड़िया बोली
मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।
मां हंस हंस होती लोट-पोट,
भैया देखे मुझको।
दादाजी बोले,
स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।
मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।
सुन्दर सा बस्ता,
काॅपी-पैन ला दे न।
अपनी क्लास में
मेरा नाम लिखवा दे न।
तू मुझको ए बी सी सिखलाना,
मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।
मेरी काम करेगी तू,
मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।
मेरी रोटी भी बंधवा लेना
नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।
गुड़िया बोली,
न न न न, दादाजी,
मैं अपनी रोटी न दूंगी,
आप अभी बहुत छोटे हैं,
थोड़े बड़े हो जाओ न।
अभी तो तुम
मेरे घोड़े ही बन जाओ न।
Share Me
Write a comment
More Articles
बालपन-सा था कभी
बालपन-सा था कभी निर्दोष मन
अब देखो साधता है हर दोष मन
कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन
ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन
Share Me
विचारों का झंझावात
अजब है
विचारों का झंझावात भी
पलट-पलट कर कहता है
हर बार नई बात जी।
राहें, चौराहे कट रहे हैं
कदम भटक रहे हैं
कहाँ से लाऊँ
पत्थरों से अडिग भाव जी।
जब धार आती है तीखी
तब कट जाते हैं
पत्थरों के अविचल भराव भी,
नदियों के किनारों में भी
आते हैं कटाव जी।
और ये भाव तो हवाएँ हैं
कब कहाँ रुख बदल जायेगा
नहीं पता हमें
मूड बदल जाये
तो दुनिया तहस-नहस कर दें
हमारी क्या बात जी।
तो कुछ
आप ही समझाएँ जनाब जी।
Share Me
प्रकृति है जीवन सौन्दर्य
रक्त पीत वर्ण में बासंती बयार फ़लक है।
आकर्षित करता तुम्हारा रूप दृष्टि ललक है।
न जाने कब छा जायें घटाएं, बदले मौसम,
जीवन के सौन्दर्य की यह बस एक झलक है।
Share Me
संस्मरण /यात्रा संस्मरण
रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।
फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।
इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।
वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।
मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।
आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।
दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।
किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।
इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।
Share Me
धूप-छांव में उलझता मन
कोहरे की चादर
कुछ मौसम पर ,
कुछ मन पर।
शीत में अलसाया-सा मन।
धूप-छांव में उलझता,
नासमझों की तरह।
बहती शीतल बयार।
न जाने कौन-से भाव ,
दबे-ढके कंपकंपाने लगे।
कहना कुछ था ,
कह कुछ दिया,
सर्दी के कारण
कुछ शब्द अटक से गये थे,
कहीं भीतर।
मूंगफ़ली के छिलके-सी
दोहरी परतें।
दोनों नहीं
एक तो उतारनी ही होगी।
Share Me
प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
.
सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
.
काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
.
अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
.
कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
.
पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
.
सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
.
अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
-
राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
Share Me
अपनापन आजमाकर देखें
चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें
मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें
न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे
मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें
Share Me
अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
Share Me
हमारा हिन्दी दिवस
वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।
उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था
**************
हमारा हिन्दी दिवस।
14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।
भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।
कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।
कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि
सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,
सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।
-
कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता
कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी
हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,
फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।
वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों,
मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।
कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।
सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।
रसद पानी, वाह वाही,
कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।
हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।
फिर वर्ष भर का अवकाश।
न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।
वर्ष भर की बेकारी।
मुझे लगता है
हमारा हिन्दी दिवस
सरकार का एक दत्तक पुत्र है
14 सितम्बर 1949 को गोद लिया
और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।
अब सरकार हर 14 सितम्बर को
उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है
उनके नाम पर वर्ष भर से रूके
अपने कई काम पूरे करवाती है
वर्ष भर बाद
कुछ दक्षिणा मिल पाती है।
-
आह ! एक वर्ष !
फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये
फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !
फिर ! फिर ! शायद अब तक
हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।
अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे
हर वर्ष मिलेंगे।
हम हिन्दी के चौधरी हैं
हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।
Share Me
यह मेरा शिमला है
बस एक छोटी सी सूचना मात्र है
तुम्हारे लिए,
कि यह शहर
जहां तुम आये हो,
इंसानों का शहर है।
इसमें इतना चकित होने की
कौन बात है।
कि यह कैसा अद्भुत शहर है।
जहां अभी भी इंसान बसते हैं।
पर तुम्हारा चकित होना,
कहीं उचित भी लगता है ।
क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,
वहां सड़कों पर,
पत्थरों को चलते देखा है मैंने,
बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।
हंसते और खिलखिलाते हैं
भोंपू और बाजे।
सिक्का रोटी बन गया है।
पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,
यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।
स्वागत है तुम्हारा।