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काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।
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अधिकार और कर्तव्य
अधिकार यूं ही नहीं मिल जाते,कुछ कर्त्तव्य निभाने पड़ते हैं
मार्ग सदैव समतल नहीं होते,कुछ तो अवरोध हटाने पड़ते हैं
लक्ष्य तक पहुंचना सरल नहीं,पर इतना कठिन भी नहीं होता
बस कर्त्तव्य और अधिकार में कुछ संतुलन बनाने पड़ते हैं
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आंखें फ़ेर लीं
अपनों से अपनेपन की चाह में
जीवन-भर लगे रहे हम राह में
जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं
कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में
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हम वहीं के वहीं ठहरे रह गये
जीवन में क्या बनोगे
क्या बनना चाहते हो
अक्सर पूछे जाते थे
ऐसे सवाल।
अपने आस-पास
देखते हुए
अथवा बड़ों की सलाह से
मिले थे कुछ बनने के आधार।
रट गईं थी हमें
बताईं गईं कुछ राहें और काम,
और जब भी कोई पूछता था
हम ले देते थे
कोई भी एक-दो नाम।
किन्तु मन तब डरने लगा
जब हमारे सामने
दी जाने लगीं ढेरों मिसालें
अनगिनत उदाहरण।
किसी की जीवनियाँ,
किसी की आहुति,
किसी की सेवा
और किसी का समर्पण।
कोई सच्चा, कोई त्यागी,
कोई महापुरुष।
इन सबको समझने
और आत्मसात करने में
जीवन चला गया
और हम
वहीं के वहीं ठहरे रह गये।
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हमारा व्यवहार हमारी पहचान
हमारा व्यवहार हमारी पहचान Our Behavior Our Identity
निःसंदेह हमारा व्यवहार हमारी पहचान है।
किन्तु कभी आपने सोचा है कि हमारा व्यवहार कैसे बनता है? व्यवहार क्या है? हम किसी से कैसे बात करते हैं, कैसे प्रतिक्रिया करते हैं, अपने मनोभावों को कैसे प्रकट करते हैं, यही व्यवहार है। हँसना, बोलना, बात करना, प्रतिक्रिया देना, हाँ-ना, सहायता करना, न करना, प्रसन्नता, नाराज़गी, सम्मान-अपमान, सभी व्यवहार ही तो हैं।
हर व्यक्ति का प्रयास रहता है कि वह सामने वाले से अच्छा व्यवहार करे कि उसकी छवि अच्छी बनी रहे। किन्तु क्या सदैव ऐसा हो पाता है? नहीं।
कारण, बहुत बार हमारा व्यवहार सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। क्योंकि हम एक साधारण इंसान हैं, कोई पहुँचे हुए धर्मात्मा नहीं, इस कारण सामने वाले का व्यवहार हमारे व्यवहार को बदल सकता है।
जैसे मैं अपना ही उदाहरण देती हूँ। मैं नहीं कह सकती कि मेरा व्यवहार बहुत अच्छा है, ये तो मुझे जानने वाले ही बता सकते हैं। किन्तु मेरे व्यवहार में तात्कालिक प्रतिक्रिया है
मैं अपने साथ बात अथवा व्यवहार करने वाले के प्रति प्रतिक्रिया बहुत जल्दी देती हूँ। जैसा कि आप जानते हैं हमारे समाज में अपशब्दों का एवं और अनेक तरीकों से महिलाओं के साथ शाब्दिक, सांकेतिक दुव्र्यवहार होता है। ऐसे समय मेरा व्यवहार बदल जाता है। मैं अत्यधिक क्रोधित एवं आक्रामक हो जाती हूँ, मेरी सहनशक्ति मेरा साथ छोड़ देती है और मैं तत्काल प्रतिक्रिया करती हूँ। जो निश्चित रूप से क्रोध एवं प्रतिकार ही होती है।
ऐेसे समय में मेरा व्यवहार मेरा अपना नहीं होता , सामने वाले के व्यवहार की प्रतिच्छाया होता है। मेरा यह व्यवहार अथवा स्वभाव मेरा स्थायी व्यवहार नहीं है किन्तु मेरी पहचान अवश्य है कि मैं गलत का विरोध करने का साहस रखती हूँ।
अतः मेरी दृष्टि में हमारा व्यवहार परिस्थितियों, कार्य-क्षेत्र, हमारे आस-पास के वातावरण, लोगों पर बहुत निर्भर करता है और सम्भव है हमारा ऐसा व्यवहार स्थायी न हो और हमारी पहचान न हो।
अतः किसी के व्यवहार और उस व्यवहार से उसकी पहचान मानने के लिए किसी भी व्यक्ति की कोई एक बात से उसे समझा और जाना नहीं जा सकता, एक जीवन जीना पड़ता है किसी के व्यवहार को समझने के लिए और पहचान बनाने के लिए।
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बस जीवन बीता जाता है
सब जीवन बीता जाता है ।
कुछ सुख के कुछ दुख के
पल आते हैं, जाते हैं,
कभी धूप, कभी झड़़ी ।
कभी होती है घनघोर घटा,
तब भी जीवन बीता जाता है ।
कभी आस में, कभी विश्वास में,
कभी घात में, कभी आघात में,
बस जीवन बीता जाता है ।
हंसते-हंसते आंसू आते,
रोते-रोते खिल-खिल करते ।
चढ़़ी धूप में पानी गिरता,
घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।
फिर भी जीवन बीता जाता है ।
नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता
बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।
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हमारे नाम की चाबी
मां-पिता
जब ईंटें तोड़ते हैं
तब मैंने पूछा
इनसे क्या बनता है मां ?
मां हंसकर बोली
मकान बनते हैं बेटा!
मैंने आकाश की ओर
सिर उठाकर पूछा
ऐसे उंचे बनते हैं मकान?
कब बनते हैं मकान?
कैसे बनते हैं मकान?
कहां बनते हैं मकान?
औरों के ही बनते हैं मकान,
या अपना भी बनता है मकान।
मां फिर हंस दी।
पिता की ओर देखकर बोली,
छोटा है अभी तू
समझ नहीं पायेगा,
तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।
शायद कभी कोई
हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।
और फिर ईंटें तोड़ने लगी।
मां को उदास देख
मैंने भी हथौड़ी उठा ली,
बड़ी न सही, छोटी ही सही,
तोड़ूंगा कुछ ईंटें
तो मकान तो ज़रूर बनेगा,
इतना उंचा न सही
ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!
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एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में।
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।
अब आज की ही बात लीजिए।
नवरात्रों में
मां की चुनरी की बात हो रही थी
और मुझे होलिका की याद हो आई।
अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।
जब भी चुनरी की बात उठती है
मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,
और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।
कथाओं में पढ़ा है
उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।
शायद वैसी ही कोई चुनरी
जो हम कन्याओं का पूजन करके
उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।
किन्तु कभी देखा है आपने
कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां
और कैसे कैसे उड़ जाती है।
शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां
इतने आम हो चुके हैं
कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो माता की चुनरी और
होलिका की चुनरी की कर रही थी
और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,
पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।
किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही
और एक कन्या
जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।
उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।
और था एक अत्याचारी भाई।
शायद वह जानती भी नहीं थी
भाई के अत्याचारों, अन्याय को
अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।
और अपने वरदान या श्राप को।
लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर
बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।
अग्नि देवता आगे आये थे
प्रह्लाद की रक्षा के लिए।
किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,
और होलिका जल मरी।
वैसे भी चुनरी की आेर
किसी का ध्यान ही कहां जाता है
हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।
और हम !
हमारे लिए एक पर्व हो जाता है
एक औरत जलती है
उसकी चुनरी उड़ती है और हम
आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
अब आग तो बस आग होती है
जलाती है
और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।
अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे
सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,
पवित्र बताया था उसे।
और राम ने अपनाया था।
किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी
घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर
फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।
और वह समा गई थी धरा में
एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
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धरा पर उतर
चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
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मानवता को मुंडेर पर रख
आस्था, विश्वास,श्रद्धा को हम निर्जीव पत्थरों पर लुटा रहे हैं
अधिकारों के नाम पर जाति-धर्म,आरक्षण का विष पिला रहे हैं
अपने ही घरों में विष-बेल बीज ली है,जानते ही नहीं हम
मानवता को मुंडेर पर रख,अपना घर फूंक ताली बजा रहे हैं
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मन न जाने कहां-कहां-तिरता है
इस एकान्त में
एक अपनापन है,
फूलों-पत्तियों में
मेरे मन का चिन्तन है।
कुछ हरे-भरे,
कुछ गिरे-पड़े,
कुछ डाली से टूटे,
और कुछ मानों कलियों-से
अधजीवन में ही
अपनेपन से छूटे।
लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे
मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।
इस निश्चल, निश्छल जल में
अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।
कुछ उलटता है, कुछ पलटता है
डूबता-उतरता है,
फिर लौटता है
सहज-सहज
एक मधुर मुस्कान के साथ।