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तुम अपने होते तो मेरे क्रोध में भी प्यार की तलाश करते
तुम अपने होते तो मेरे मौन में भी एहसास की बात करते
मन की दूरियां मिटाने के लिए साथ होना कोई ज़रूरी नहीं
तुम अपने होते तो मेरे रूठने में भी अपनेपन की पहचान करते
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दीपावली पर्व की शुभकामनाएं
नेह की बाती, अपनत्व की लौ, घृत है विश्वास
साथ-साथ चलते रहें तब जीवन है इक आस
जानती हूं चुक जाता है घृत समय की धार में
मन में बना रहें ये भाव तो जीवन भर है हास
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नकारने के लिए अपने आप को ही
कमरे और बरामदे के बीच
दरवाज़ा और दहलीज
दरवाज़े आड़ हुआ करते हैं
और दहलीज सीमा।
आड़ यानी दरवाज़े
सुविधानुसार हटाये जा सकते हैं।
दहलीज स्थायी है।
नये मकानों में, सुविधा की दृष्टि से
दहलीज हटा दी गई है
और हम सीमा मुक्त हो गये हैं।
अब कमरे की सफ़ाई करते समय
यह ज़रूरी नहीं है
कि दरवाज़ा खोला ही जाये।
अब हर किसी ने
अपने अपने घर का
कूड़ा कचरा बाहर कर दिया है
दरवाज़ा बन्द रखकर ही।
जिससे किसी को पहचान न होने पाये।
और इस सफ़ाई अभियान के बाद
बाहर आकर, दरवाज़ों पर ताला जड़कर
अपने अपने घरों को कठघरों में बन्द करके
सब लोग बाहर आ गये हैं
कूड़े के ढेर पर
अपने अपने कूड़े को नकारने के लिए।
या फिर
नकारने के लिए
अपने आप को ही।
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वहम की दीवारें
बड़ी नाज़ुक होती हैं
वहम की दीवारें
ज़रा-सा हाथ लगते ही
रिश्तों में
बिखर-बिखर जाती हैं
कांच की किरचों की तरह।
कितने गहरे तक
घाव कर जायेंगी
हम समझ ही नहीं पाते।
सच और झूठ में उलझकर
अनजाने में ही
किरचों को समेटने लग जाते हैं,
लेकिन जैसे
कांच
एक बार टूट जाने पर
जुड़ता नहीं
घाव ही देता है
वैसे ही
वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते
कभी जुड़ते नहीं।
जब तक
हम इस उलझन को समझ सकें
दीवारों में
किरचें उलझ चुकी होती हैं।
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जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं
कहते हैं
जीवन पानी का बुलबुला है।
किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,
कि जीवन
कोई छोटी कहानी है,
बुलबुले-सी।
सागर की गहराई से भी
उठते हैं बुलबुले।
और खौलते पानी में भी
बनते हैं बुलबुले।
जीवन में गहराई
और जलन का अनुभव
अद्भुत है,
या तो डूबते हैं,
या जल-भुनकर रह जाते हैं।
जीवन की कहानियां
बुलबुलों-सी नहीं होतीं
बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।
वैसे ही जैसे
किसी के पद-चिन्हों पर,
सारी दुनिया
चलना चाहती है।
और किसी के पद-चिन्ह
पानी के बुलबुले से
हवाओं में उड़ जाते हैं,
अनदेखे, अनजाने,
अनपहचाने।
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हम श्मशान बनने लगते हैं
इंसान जब मर जाता है,
शव कहलाता है।
जिंदा बहुत शोर करता था,
मरकर चुप हो जाता है।
किन्तु जब मर कर बोलता है,
तब प्रेत कहलाता है।
.
श्मशान में टूटती चुप्पी
बहुत भयंकर होती है।
प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,
मुझे नहीं पता,
किन्तु जब
जीवित और मृत
के सम्बन्ध टूटते हैं,
तब सन्नाटा भी टूटता है।
कुछ चीखें
दूर तक सुनाई देती हैं
और कुछ
भीतर ही भीतर घुटती हैं।
आग बाहर भी जलती है
और भीतर भी।
इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,
नहीं समझ आता,
जब रात-आधी-रात
चीत्कार सुनाई देती है,
सूर्यास्त के बाद
लाशें धधकती हैं,
श्मशान से उठती लपटें,
शहरों को रौंद रही हैं,
सड़कों पर घूम रही हैं,
बेखौफ़।
हम सिलेंडर, दवाईयां,
बैड और अस्पताल का पता लिए,
उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं
और लौटकर पंहुच जाते हैं
फिर श्मशान घाट।
.
फिर चुपचाप
गणना करने लगते हैं, भावहीन,
आंकड़ों में उलझे,
श्मशान बनने लगते हैं।
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भाव तिरंगे के
बालमन भी समझ गये हैं भाव तिरंगे के
केशरी, श्वेत, हरे रंगों के भाव तिरंगे के
गर्व से शीश उठता है, देख तिरंगे को
शांति, सत्य, अहिंसा, प्रेम भाव तिरंगे के
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मन से मन मिले हैं
यूं तो
मेरा मन करता है
नित्य ही
पूजा-आराधना करुँ।
किन्तु
पूजा के भी
बहुत नियम-विधान हैं
इसलिए
डरती हूं पूजा करने से।
ऐसा नहीं
कि मैं
नियमों का पालन करने में
असमर्थ हूँ
किन्तु जहाँ भाव हों
वहाँ विधान कैसा ?
जहाँ नेह हो
वहां दान कैसा ?
जहाँ भरोसा हो
वहाँ प्रदर्शन कैसा ?
जब
मन से मन मिले हैं
तो बुलावा कैसा ?
जब अन्तर्मन से जुड़े हैं
तो दिनों का निर्धारण कैसा ?
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विश्व-शांति के लिए
विश्व-शांति के लिए
बनाने पड़ते हैं आयुध
रचनी पड़ती हैं कूटनीतियाँ
धर्म, जाति
और देश के नाम पर
बाँटना पड़ता है,
चिननी पड़ती हैं
संदेह की दीवारें
अपनी सुरक्षा के नाम पर।
युद्धों का
आह्वान करना पड़ता है
देश की रक्षा की
सौगन्ध उठाकर
झोंक दिये जाते हैं
युद्धों में
अनजान, अपरिचित,
किसी एक की लालसा,
महत्वाकांक्षा
ले डूबती है
पूरी मानवता
पूरा इतिहास।
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प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं
वैसे तो
आप सबको
बहुत बार बता चुकी हूँ
कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।
आज फिर एक
नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ
मेरे सामने।
पता नहीं क्यों
बहुत छोटे-छोटे प्रश्न
सुलझा नहीं पाती मैं
इसलिए
बड़े प्रश्नों से तो
उलझती ही नहीं मैं।
जब हम छोटे थे
तब बस इतना जानते थे
कि हम बच्चे हैं
लड़का-लड़की
बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी
न हमें
न हमारे परिवार वालों को।
न कोई डर था न चिन्ता।
पूजा-वूजा के नाम पर
ज़रूर लड़कियों की
छंटाई हुआ करती थी
किन्तु और किसी मुद्दे पर
कभी कोई बात
होती हो
तो मुझे याद नहीं।
अब आधुनिक हो गये हैं हम
ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है
सोच में
लड़का-लड़की एक समान।
बेटा-बेटी एक समान।
किसी को पता हो तो
बताये मुझे
अलग कब हुए थे ये।
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भावनाएं पत्थर हो गईं
सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।
मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।
भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां
बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।