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तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।
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जल की महिमा
बूंद-बूंद से घट भरे, बूंद-बूंद से न घटे सागर
जल की महिमा वो जाने, जिसके पास न गागर
पानी की बरबादी चुभती है, खड़़े पानी में कीट
अंजुरी-भर पानी ले, सोचिए कैसे रखें पानी बचाकर
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अकारण क्यों हारें
राहों में आते हैं कंकड़-पत्थर, मार ठोकर कर किनारे।
न डर किसी से, बोल दे सबको, मेरी मर्ज़ी, हटो सारे।
जो मन चाहेगा, करें हम, कौन, क्यों रोके हमें यहां।
कर्म का पथ कभी छोड़ा नहीं, फिर अकारण क्यों हारें।
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न उदास हो मन
पथ पर कंटक होते है तो फूलों की चादर भी होती है
जीवन में दुख होते हैं तो सुख की आशा भी होती है
घनघोर घटाएं छंट जाती हैं फिर धूप छिटकती है
न उदास हो मन, राहें कठिन-सरल सब होती हैं
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बेटी दिवस पर एक रचना
बेटियों के बस्तों में
किताबों के साथ
रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,
कुछ वर्जनाएं,
कुछ आदेश, और कुछ संदेश।
डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,
जिन्हें
पैदा होते ही पिला देते हैं
हम उन्हें
घुट्टी की तरह।
बस यहीं नहीं रूकते हम।
और बोझा भरते हैं हम,
परम्पराओं, रीति-रिवाज़
संस्कार, मान्यताओं,
सहनशीलता और चुप्पी का।
इनके बोझ तले
दब जाती हैं
उनकी पुस्तकें।
कक्षाएं थम जाती हैं।
हम चाहते हैं
बेटियां आगे बढ़ें,
बेटियां खूब पढें,
बेबाक, बिन्दास।
पर हमारा नज़र रहती है
हर समय
बेटी की नज़र पर।
जैसे ही कोई घटना
घटती है हमारे आस-पास,
हम बेटियों का बस्ता
और भारी कर देते हैं,
और भारी कर देते हैं।
कब दब जाती हैं,
उस भार के नीचे,
सांस घुटती है उनकी,
कराहती हैं,
बिलखती हैं
आज़ादी के लिए
पर हम समझ ही नहीं पाते
उनका कष्ट,
इस अनचाहे बोझ तले,
कंधे झुक जाते हैं उनके,
और हम कहते हैं,
देखो, कितनी विनम्र
परम्परावदी है यह।
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दीपावली पर्व की शुभकामनाएं
नेह की बाती, अपनत्व की लौ, घृत है विश्वास
साथ-साथ चलते रहें तब जीवन है इक आस
जानती हूं चुक जाता है घृत समय की धार में
मन में बना रहें ये भाव तो जीवन भर है हास
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जब प्रेम कहीं से मिलता है
अनबोले शब्दों की चोटें
भावों को ठूंठ बना जाती हैं।
कब रस-पल्लव झड़ गये
जान नहीं पाते हैं।
जब प्रेम कहीं से मिलता है,
तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।
रूखे-रूखे भावों से आहत,
मन तरल-तरल हो जाता है।
बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।
जीवन हरा-भरा हो जाता है।
मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,
कुछ कलियां करवट लेती हैं,
जीवन इक खिली-खिली
बगिया-सा हो जाता है।
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मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
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चिडि़या मुस्कुराई
चिडि़या के उजड़े
घोंसले को देखकर
मेरा मन द्रवित हुआ
पूछा मैंने चिडि़या से
रोज़ तिनके चुनती हो
रोज़ नया घर बनाती हो
आंधी के एक झोंके से
घरौंदा तुम्हारा उजड़ जाता है
तिनका-तिनका बिखर जाता है
कभी वर्षा, कभी धूप
कभी पतझड़
कभी इंसान की करतूत।
कहां से इतना साहस पाती हो,
न जाने कहां
दूर-दूर से भोजन लाती हो
नन्हें -नन्हें बच्चों को बचाती हो
उड़ना सिखलाती हो
और अनायास एक दिन
वे सच में ही उड़ जाते हैं
तुम्हारा दिल नहीं दुखता।
- * * *
चिडि़या !!
मुंह में तिनका दबाये
एक पल के लिए
मेरी ओर देखा
मुस्कुराई
और उड़ गई
अपना घरौंदा
पुन: संवारने के लिए।
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जब बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू
तीनों लोकों के दुष्टों का
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था।
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
* * * *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे।
* * * * *
तुम्हारी कथाओं से
बस
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।
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विश्वगुरू बनने की बात करें
विश्वगुरू बनने की बात करें, विज्ञान की प्राचीन कथाएं पढ़े हम शान से।
सवा सौ करोड़ में सवा लाख सम्हलते नहीं, रहें न जाने किस मान में।
अपने ही नागरिक प्रवासी कहलाते, विश्व-पर्यटन का कीर्तिमान बना
अब लोकल-वोकल की बात करें, यही कथाएं चल रहीं हिन्दुस्तान में।