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वे और थे
जो मंज़िल की तलाश में
भटका करते थे।
आज तो
मंज़िल मेरी तलाश में है।
क्योंकि
मंज़िल तक
कोई पहुंचता ही नहीं।
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मेरा भारत महान
ऐसे चित्र देखकर
मन द्रवित, भावुक होता है,
या क्रोधित,
अपनी ही समझ नहीं आता।
.
कुछ कर नहीं सकते,
या करना नहीं चाहते,
किंतु बनावट की कहानियां,
इस तरह की बानियां,
गले नहीं उतरतीं।
मेरा भारत महान है।
महान ही रहेगा।
पर रोटी, कपड़ा, मकान
की बात कौन करेगा?
सोचती हूं
बच्चे के हाथ में
किसने दी
स्लेट और चाॅक,
और कौन सिखा रहा
इसे लिखना
मेरा भारत महान?
स्लेट की जगह दो रोटी दे देते,
और देते पिता को कोई काम।
बच्चे के तन पर कपड़े होते,
तब शायद मुझे लगता,
मेरा भारत और भी ज़्यादा महान।
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ओ बादल अब तो बरस ले
तेरे बिना
जीवन की आस नहीं,
तेरे बिना जीव का भास नहीं,
न जाने क्यों
अक्सर रूठ जाया करते हैं।
बुलाने पर भी
नहीं सूरत दिखाया करते हैं।
जानते हो,
मौसम बड़ा बेरहम है,
बस झलक दिखाकर
अक्सर मुंह मोड़कर
चले जाया करते हैं।
न चिन्ता न जताया करते हैं।
ओ बादल!
अब तो बरस ले,
हर बार,
ग्रीष्म में यूं ही सताया करते हैं।
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कथा प्रकाश की
बुझा भी दोगे इस दीप की लौ को, प्रतिच्छाया मिटा न पाओगे
बूंद बूंद में लिखी जा चुकी है कथा प्रकाश की, मिटा न पाओगे
कांच की दीवार के आर हो या पार, सत्य तो सुरभित होकर रहेगा
बाती और धूम्र पहले ही लिख चुके इतिहास को, मिटा न पाओगे
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बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी को
अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर
मन उदास होता है,
तब बिना वजह
खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज
उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता
वही आज कर लें
तो क्या बात है।
किसी की
प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
चलो,
आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को
सच में
अपना बना सकें तो क्या बात है।
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यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
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हमें भी मुस्काराना आ गया
फूलों को खिलते देख हमें भी मुस्काराना आ गया
गरजते बादलों को सुन हमें भी जताना आ गया
बहती नदी की धार ने सिखाया हमें चलते जाना
उंचे पर्वतों को देख हमें भी पांव जमाना आ गया
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श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो
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मन हर्षाए बादल
बिन मौसम आज आये बादल
कड़क-कड़क यूँ डराये बादल
पानी बरस-बरस मन भिगाये
शाम सुहानी, मन हर्षाए बादल
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एक साईकिल दिलवा दो न
ए जी,
मुझको भी
एक साईकिल दिलवा दो न।
कार-वार का क्या करना है,
यू. पी. से दिल्ली तक
ही तो फ़र्राटे भरना है।
बस उसमें
आरक्षण का ए.सी. लगवा देना।
लुभावने वादों की
दो-चार सीटें बनवा देना।
कुछ लैपटाप लटका देना।
कुछ हवा-भवा भरवा देना।
एक-ठौं पत्रकार बिठा देना।
कुछ पूरी-भाजी बनवा देना।
हां,
एक कुर्सी ज़रूर रखवा देना,
उस पर रस्सी बंधवा देना।
और
लौटे में देर हो जाये
तो फुनवा घुमा लेना।
ए जी,
एक ठौ साईकिल दिलवा दो न।
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हाथों से मिले नेह-स्पर्श
पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,
जीवन में संवाद मरते हैं।
हाथों से मिले नेह-स्पर्श,
बस यही आस रखते है।