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दिल न हुआ,
कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।
एक इधर गया,
एक उधर गया,
इतनी सफाई से काटा ,
कि दिल बाग-बाग हो गया।
-
जिसे देखो
आजकल
दिल हाथ में लिए घूमते हैं ,
ज़रा सम्हाल कर रखिए अपने दिल को,
कभी कभी अजनबी लोग,
दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,
और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।
-
वैसे दिल के टुकड़े कर लिए
आराम हो गया ।
न किसी के इंतज़ार में हैं ।
न किसी के दीदार में हैं ।
टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।
जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।
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आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु
मंदिरों की नींव में
निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।
द्वार पर विद्यमान होती हैं
हमारी प्रार्थनाएं।
प्रांगण में विराजित होती हैं
हमारी कामनाएं।
और गुम्बदों पर लहराती हैं
हमारी सदाएं।
हम पत्थरों को तराशते हैं।
मूर्तियां गढ़ते हैं।
रंग−रूप देते हैं।
सौन्दर्य निरूपित करते हैं।
नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से
श्रृंगार करते हैं उनका।
और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
करते –करते कर लिए हमने
चौरासी करोड़ देवी –देवता।
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समय –प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं ।
और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।
खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है
कहीं जल –प्रवाह में।
और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही
तिरोहित होने लगती हैं
हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।
श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।
आस्थाएं विस्थापित होने लगीं
प्रार्थनाएं बिखरने लगीं
सदाएं कपट हो गईं
और मन –मन्दिर ध्वस्त हो गये।
उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,
डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,
अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से
बंटने–बांटने लगे हम।
और आज हम जीते हैं अपने हेतु
बस अपने हेतु।
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पूछूं चांद से
अक्सर मन करता है
पूछूं चांद से
औरों से मिली रोशनी में
चमकने में
यूं कैसे दम भरता है।
मत गरूर कर
कि कोई पूजता है,
कोई गणनाएं करता है।
शायद इसीलिए
दाग लिये घूमता है,
इतना घटता-बढ़ता है,
कभी अमावस
तो कभी ग्रहण लगता है।
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बंजारों पर चित्राधारित रचना
किसी चित्रकार की
तूलिका से बिखरे
यह शोख रंग
चित्रित कर पाते हैं
बस, एक ठहरी-सी हंसी,
थोड़ी दिखती-सी खुशी
कुछ आराम
कुछ श्रृंगार, सौन्दर्य का आकर्षण
अधखिली रोशनी में
दमकता जीवन।
किन्तु, कहां देख पाती है
इससे आगे
बन्द आंखों में गहराती चिन्ताएं
भविष्य का धुंधलापन
अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता
संघर्ष की रोटी
राहों में बिखरा जीव
हर दिन
किसी नये ठौर की तलाश में
यूं ही बीतता है जीवन ।
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क्यों न कहे
आंखें देखती हैं,
कान सुनते हैं,
दिल जलता है,
माथा तपता है,
सब चुपचाप चलता है।
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किन्तु यह जिह्वा
सह नहीं पाती,
सब कह बैठती है।
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति
हिन्दी को वे नाम दे गये, हिन्दी को पहचान दे गये ।
अटल वाणी से वे जग में अपनी अलग पहचान दे गये।
शत्रु से हाथ मिलाकर भी ताकत अपनी दिखलाई थी ,
विश्व-पटल पर अपनी वाणी से भारत को पहचान दे गये।
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आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
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आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
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भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
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फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
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काम की कर लें अदला-बदली
धरने पर बैठे हैं हम, रोटी आज बनाओ तुम।
छुट्टी हमको चाहिए, रसोई आज सम्हालो तुम।
झाड़ू, पोचा, बर्तन, कपड़े, सब करना होगा,
हम अखबार पढ़ेंगें, धूप में मटर छीलना तुम।
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चिड़िया फूल रंग और मन
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक।
राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक।
सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने।
सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक।