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पीतल की एक गगरी होती
मुस्कानों की नगरी होती
सुबह शाम की बात यह होती
जल-जीवन की बात यह होती
जीवन यूं ही चलता है
कुछ रूकता है, कुछ बहता है
धूप-छांव सब सहता है।
छोड़ो राहें मेरी
मां देखती राह,
मुझको पानी लेकर
जल्दी घर जाना है
न कर तू चिन्ता मेरी
जीवन यूं ही चलता है
सहज-सहज सब लगता है।
कभी हंसता है, कभी सहता है।
न कर तू चिन्ता मेरी।
सहज-सहज सब लगता है।
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कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
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एक बोध कथा
बचपन में
एक बोध कथा पढ़ाई जाती थी:
आंधी की आहट से आशंकित
घास ने
बड़े बड़े वृक्षों से कहा
विनम्रता से झुक जाओ
नहीं तो यह आंधी
तुम्हें नष्ट कर देगी।
वृक्ष सुनकर मुस्कुरा दिये
और आकाश की ओर सिर उठाये
वैसे ही तनकर खड़े रहे।
आंधी के गुज़र जाने के बाद
घास मुस्कुरा रही थी
और वृक्ष धराशायी थे।
किन्तु बोध कथा के दूसरे भाग में
जो कभी समझाई नहीं गई
वृक्ष फिर से उठ खड़े हुए
अपनी जड़ों से
आकाश की ओर बढ़ते हुए
एक नई आंधी का सामना करने के लिए
और झुकी हुई घास
सदैव पैरों तले रौंदी जाती रही।
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इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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प्यार का नाता
एक प्यार का नाता है, विश्वास का नाता है
भाई-बहन से मान करता, अपनापन भाता है
दूर रहकर भी नज़दीकियाँ यूँ बनी रहें सदा
जब याद आती है, आँख में पानी भर आता है
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सजावट रह गईं हैं पुस्तकें
दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।
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मौत की दस्तक
कितनी
सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।
खुली हवाओं में सांस लेते,
जैसी भी मिली है
जी रहे थे ज़िन्दगी।
कभी ठहरी-सी,
कभी मदमाती, हंसाती,
छूकर, मस्ती में बहती,
कभी रुलाती,
हवाओं संग
लहराती, गाती, मुस्काती।
.
पर इधर
सांसें थमने लगी हैं।
हवाओं की
कीमत लगने लगी है।
आज हवाओं ने
सांसों की कीमत बताई है।
जिन्दगी पर
पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।
मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।
रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,
कीमत मांगती हैं सांसें।
अपनों की सांसें चलाने के लिए
हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।
.
शायद हम ही
बदलती हवाओं का रुख
पहचान नहीं पाये,
इसीलिए हवाएं
आज
हमारी परीक्षा ले रही हैं।
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रंगों में बहकता है
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
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कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
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यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।