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जीवन चक्र तो चलता रहता है
अच्छा लगा
तुम्हारा अभियान।
पहले
वंशी की मधुर धुन पर
नेह दिया,
सबको मोहित किया,
प्रेम का संदेश दिया।
.
उपरान्त
शंखनाद किया,
एक उद्घोष, आह्वान,
सत्य पर चलने का,
अन्याय का विरोध,
अपने अधिकारों के लिए
मर मिटने का,
चक्र थाम।
.
और एक संदेश,
जीवन-चक्र तो चलता रहता है,
तू अपना कर्म किये जा
फल तो मिलेगा ही।
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कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
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ससम्मान बात करनी पड़ती है
पता नहीं वह धोबी कहां है
जिस पर यह मुहावरा बना था
घर का न घाट का।
वैसे इस मुहावरे में
दो जीव भी हुआ करते थे।
जब से समझ आई है
यही सुना है
कि धोबी के गधे हुआ करते थे
जिन पर वे
अपनी गठरियां ठोते थे।
किन्तु मुहावरे से
गर्दभ जी तो गायब हैं
हमारी जिह्वा पर
श्वान महोदय रह गये।
और आगे सुनिये मेरा दर्शन।
धोबी के दर्शन तो
कभी-कभार
अब भी हो जाते हैं
किन्तु गर्दभ और श्वान
दोनों ही
अपने-अपने
अलग दल बनाकर
उंचाईयां छू रहे हैं।
इसीलिए जी का प्रयोग किया है
ससम्मान बात करनी पड़ती है।
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जब भी दूध देखा
सुना ही है
कि भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाँ बहा करती थीं।
हमने तो नहीं देखीं।
बहती होंगी किसी युग में।
हमने तो
दूध को सदा
टीन के पीपों से ही
बहते देखा है।
हम तो समझ ही नहीं पाये
कि दूध के लिए
दुधारु पशुओं का नाम
क्यों लिया जाता है।
कैसे उनका दूध समा जाता है
बन्द पीपों में
थैलियों में और बोतलों में।
हमने तो जब भी दूध देखा
सदा पीपों में, थैलियों में
बन्द बोतलों में ही देखा।
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इतिहास हमारा
इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल
किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल
गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे
यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल
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अपनी पहचान की तलाश
नाम ढूँढती हूँ पहचान पूछती हूँ ।
मैं कौन हूँ बस अपनी आवाज ढूँढती हूँ ।
प्रमाणपत्र जाँचती हूँ
पहचान पत्र तलाशती हूँ
जन्मपत्री देखती हूँ
जन्म प्रमाणपत्र मांगती हूँ
बस अपना नाम मांगती हूँ।
परेशान घूमती हूँ
पूछती हूँ सब से
बस अपनी पहचान मांगती हूं।
खिलखिलाते हैं सब
अरे ! ये कमला की छुटकी
कमली हो गई है।
नाम ढूँढती है, पहचान ढूँढती है
अपनी आवाज ढूँढती है।
अरे ! सब जानते हैं
सब पहचानते हैं
नाम जानते हैं।
कमला की बिटिया, वकील की छोरी
विन्नी बिन्नी की बहना,
हेमू की पत्नी, देवकी की बहू,
और मिठू की अम्मा ।
इतने नाम इतनी पहचान।
फिर भी !
परेशान घूमती है, पहचान पूछती है
नाम मांगती है, आवाज़ मांगती है।
मैं पूछती हूं
फिर ये कविता कौन है
कौन है यह कविता ?
बौखलाई, बौराई घूमती हूं
नाम पूछती हूं, अपनी आवाज ढूँढती हूं
अपनी पहचान मांगती हूं
अपना नाम मांगती हूं।
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देश और ध्वज
देश
केवल एक देश नहीं होता
देश होता है
एक भाव, पूजा, अर्चना,
और भक्ति का आधार।
-
ध्वज
केवल एक ध्वज नहीं होता
ध्वज होता है प्रतीक
देश की आन, बान,
सम्मान और शान का।
.
और यह देश भारत है
और है आकाश में लहराता
हमारा तिरंगा
और जब वह भारत हो
और हो हमारा तिरंगा
तब शीश स्वयं झुकता है
शीश मान से उठता है
जब आकाश में लहराता है तिरंगा।
.
रंगों की आभा बिखेरता
शक्ति, साहस
सत्य और शांति का संदेश देता
हमारे मन में
गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।
.
जब हम
निरखते हैं तिरंगे की आभा,
गीत गाते हैं
भारत के गौरव के,
शस्य-श्यामला
धरा की बात करते हैं
तल से अतल तक विस्तार से
गर्वोन्नत होते हैं
तब हमारा शीश झुकता है
उन वीरों की स्मृति में
जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।
.
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
देश के लिए जिएँ
देश के लिए मरें
यह ज्ञान दे गये हमें।
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स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
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सम्बन्धों का सम्मान
हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा”,जैसे”,“समान” क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।
सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।
किसी ने मुझसे पूछा “क्या यह आपकी बेटी है?”
मैंने कहा “जी नहीं, मेरी बहू है।“
उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को “बेटी-जैसी” नहीं मानते
मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी “जैसी” नहीं मानती। बहू ही मानती हूं
उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।
मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।
मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्ट’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिक–सामाजिक सम्बन्धों में यह “जैसा”, “समान” जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।
मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है “आप तो मेरी मां जैसी हैं।“ कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।“
मैं कहती हूं “नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।“
मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।
हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।
और सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।
हम वे ही रिश्ते क्यों न मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।
क्या सामाजिक –पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।
लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।
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खामोशियां भी बोलती है
नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।
मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।
कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।
मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।
मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।
इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।
ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।
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कब छूटेगी यह नाटकबाजी
देह पर पुस्तक-सज्जा से
पढ़ना नहीं आ जाता।
मांग में कलम सजाने से
लिखना नहीं आ जाता।
कपोत उड़ाने भर से
स्वाधीनता के द्वार
उन्मुक्त नहीं हो जाते।
पहले हाथ की बेड़ियां
तो तोड़।
फिर सोच,
कान के झुमके,
माथे की टिकुली,
नाक की नथनी,
और नर्तन मुद्रा के साथ,
इन फूलों के बीच
कितनी सजती हो तुम।
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हम हार नहीं माना करते
तूफ़ानों से टकराते हैं
पर हम हार नहीं माना करते।
प्रकृति अक्सर अपना
विकराल रूप दिखलाती है
पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।
इंसान और प्रकृति के युद्ध
कभी रुके नहीं
हार मान कर
हम पीछे नहीं हटते।
प्रकृति बहुत सीख देती है
पर हम परिवर्तन को
छोड़ नहीं सकते,
जीवन जीना है तो
बदलाव से
हम पीछे नहीं हट सकते।
सुनामी आये, यास आये
या आये ताउते
नये-नये नामों के तूफ़ानों से
अब हम नहीं डरते।
प्रकृति
जितना ही
रौद्र रूप धारण करती है
मानवता उससे लड़ने को
उतने ही
नित नये साधन जुटाती है।
तब प्रकृति भी मुस्काती है।