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जीवन में डर का भाव
कभी-कभी ज़रूरी होता है,
शेर के पिंजरे के आगे
शान दिखाना तो ठीक है,
किन्तु खुले शेर को ललकारना
पता नहीं क्या होता है!
जीवन में दो कदम
पीछे लेना
सदा डर नहीं होता।
जीवन कोई विवाद नहीं
कि हम हर बात का मुद्दा बनाएं,
कभी-कभी उलझने से
बेहतर होता है
पीछे हट जाना,
चाहे कोई हमें डरपोक बताए।
जीवन कोई तर्क भी नहीं
कि हम सदा
वाद-विवाद में उलझे रहें
और जीवन
वितण्डावाद बनकर रह जाये।
शत्रु से बचकर मैदान छोड़ना
सदा डर नहीं होता,
जान बचाकर भागना
सदा कायरता नहीं होती,
नयी सोच के लिए,
राहें उन्मुक्त करने के लिए,
बचाना पड़ता है जीवन,
छोड़नी पड़ती हैं राहें,
किसी अपने के लिए,
किसी सपने के लिए,
किन्हीं चाहतों के लिए।
फिर आप इसे डर समझें,
या कायरता
आपकी समझ।
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
-
रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
-
देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
-
फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
-
यही ज़िन्दगी है।
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जब बजता था डमरू
कहलाते शिव भोले-भाले थे
पर गरल उन्होंने पिया था
नरमुण्डों की माला पहने,
विषधर उनके आभूषण थे
भूत-प्रेत-पिशाच संगी-साथी
त्रिशूल हाथ में लिया था
त्रिनेत्र खोल जब बजता था डमरू
तीनों लोकों के दुष्टों का
संहार उन्होंने किया था
चन्द्र विराज जटा पर,
भागीरथी को जटा में रोक
विश्व को गंगामयी किया था।
भांग-धतूरा सेवन करते
भभूत लगाये रहते थे।
जग से क्या लेना-देना
सुदूर पर्वत पर रहते थे।
* * * *
अद्भुत थे तुम शिव
नहीं जानती
कितनी कथाएं सत्य हैं
और कितनी कपोल-कल्पित
किन्तु जो भी हैं बांधती हैं मुझे।
* * * * *
तुम्हारी कथाओं से
बस
तुम्हारा त्रिनेत्र, डमरू
और त्रिशूल चाहिए मुझे
शेष मैं देख लूंगी ।
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कैसे होगा तारण
आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन
सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन
जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग
चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण
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मदमस्त जिये जा
जीवन सरल सहज है बस मस्ती में जिये जा
सुख दुख तो आयेंगे ही घोल पताशा पिये जा
न बोल, बोल कड़वे, हर दिन अच्छा बीतेगा
अमृत गरल जो भी मिले हंस बोलकर लिये जा
कौन क्या कहता है भूलकर मदमस्त जिये जा
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आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक हो
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
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पतझड़
हरे पत्ते अचानक
लाल-पीले होने लगते हैं।
नारंगी, भूरे,
और गाढ़े लाल रंग के।
हवाएं डालियों के साथ
मदमस्त खेलती हैं,
झुलाती हैं।
पत्ते आनन्द-मग्न
लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।
हवाओं के संग
उड़ते-फ़िरते, लहराते,
रंग बदलते,
छूटते सम्बन्ध डालियों से।
शुष्कता उन्हें धरा पर
ले आती है।
यहां भी खेलते हैं
हवाओं संग,
बच्चों की तरह उछलते-कूदते
उड़ते फिरते,
मानों छुपन-छुपाई खेलते।
लोग कहते हैं
पतझड़ आया।
लेकिन मुझे लगता है
यही जीवन है।
और डालियों पर
हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।
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खामोशियां भी बोलती है
नई बात। अब कहते हैं मौन रहकर अपनी बात कहना सीखिए, खामोशियाँ भी बोलती हैं। यह भी भला कोई बात हुई। ईश्वर ने गज़ भर की जिह्वा दी किसलिए है, बोलने के लिए ही न, शब्दाभिव्यक्ति के लिए ही तो। आपने तो कह दिया कि खामोशियाँ बोलती हैं, मैंने तो सदैव धोखा ही खाया यह सोचकर कि मेरी खामोशियाँ समझी जायेगी। न जी न, सरासर झूठ, धोखा, छल, फ़रेब और सारे पर्यायवाची शब्द आप अपने आप देख लीजिएगा व्याकरण में।
मैंने तो खामोशियों को कभी बोलते नहीं सुना। हाँ, हम संकेत का प्रयास करते हैं अपनी खामोशी से। चेहरे के हाव-भाव से स्वीकृति-अस्वीकृति, मुस्कान से सहमति-असहमति, सिर से सहमति-असहमति। लेकिन बहुत बार सामने वाला जानबूझकर उपेक्षा कर जाता है क्योंकि उसे हमें महत्व देना ही नहीं है। वह तो कह जाता है तुम बोली नहीं तो मैंने समझा तुम्हारी मना है।
कहते हैं प्यार-व्यार में बड़ी खामोशियाँ होती हैं। यह भी सरासर झूठ है। इतने प्यार-भरे गाने हैं तो क्या वे सब झूठे हैं? जो आनन्द अच्छे, सुन्दर, मन से जुड़े शब्दों से बात करने में आता है वह चुप्पी में कहाँ, और यदि किसी ने आपकी चुप्पी न समझी तो गये काम से। अपना ऐसा कोई इरादा नहीं है।
मेरी बात बड़े ध्यान से सुनिए और समझिए। खामोशी की भाषा अभिव्यक्ति करने वाले से अधिक समझने वाले पर निर्भर करती है। शायद स्पष्ट ही कहना पड़ेगा, गोलमाल अथवा शब्दों की खामोशी से काम नहीं चलने वाला।
मेरा अभिप्राय यह कि जिस व्यक्ति के साथ हम खामोशी की भाषा में अथवा खामोश अभिव्यक्ति में अपनी बात कहना चाह रहे हैं, वह कितना समझदार है, वह खामोशी की कितनी भाषा जानता है, उसकी कौन-सी डिग्री ली है इस खामोशी की भाषा समझने में। बस यहीं हम लोग मात खा जाते हैं।
इस भीड़ में, इस शोर में, जो जितना ऊँचा बोलता है, जितना चिल्लाता है उसकी आवाज़ उतनी ही सुनी जाती है, वही सफ़ल होता है। चुप रहने वाले को गूँगा, अज्ञानी, मूर्ख समझा जाता है।
ध्यान रहे, मैं खामोशी की भाषा न बोलना जानती हूँ और न समझती हूँ, मुझे अपने शब्दों पर, अपनी अभिव्यक्ति पर, अपने भावों पर पूरा विश्वास है और ईश प्रदत्त गज़-भर की जिह्वा पर भी।
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मन में एक जंगल है
मन में एक जंगल है
विचारों का, भावों का।
एक झंझावात की तरह आते हैं
अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,
तहस-नहस करते हैं
और हवा के झोंके के साथ
अचानक
कहीं दूर उड़ जाते हैं।
कभी शब्द दे पाती हूं
और कभी नहीं।
लिखे शब्द पिघलने लगते हैं
आसमानी बादलों की तरह।
कहीं दूर उड़ जाते हैं
पक्षी की तरह।
हर बार एक कही-अनकही
आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।
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मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द
सुना है मैंने,
रेत पर घरौंदे नहीं बनते।
धंसते हैं पैर,
कदम नहीं उठते।
.
वैसे ऐसा भी नहीं
कि नामुमकिन हो यह।
सीखते-सीखते
सब सीख जाता है इंसान,
‘गर मज़बूरी हो
या जिद्द।
.
मज़बूरी से बड़ी होती है जिद्द,
और जब जिद्द हो,
तो रेत क्या
और पानी क्या,
घरौंदे भी बनते हैं ,
पैर भी चलते हैं,
और ऐसे ही कारवां भी बनते हैं।
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उड़ती चिड़िया के पर गिन लिया करते हैं
सुना है कुछ लोग
उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
कौन हैं वे लोग
जो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
क्या वे
कोई और काम भी करते हैं,
अथवा बस,
उड़ती चिड़िया के
पर ही गिनते रहते हैं।
कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?
कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?
जिनके पर गिने जा रहे हैं ?
पहले पकड़ते हैं,
पिंजरे में
पालन-पोषण करते हैं।
लाड़-प्यार जताते हैं।
कुछ पर काट देते हैं,
कि चिड़िया उड़ न जाये।
फिर एक दिन उकता जाते हैं,
और छोड़ देते हैं उसे
आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।
फिर अपना अनुभव बखानते हैं,
हम तो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लेते हैं।
सच में ही
बहुत गुणी हैं ये लोग।