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मात्र धनार्जन, सम्मान कुछ पदकों का मोहताज नहीं है साहित्य
एक पूरी संस्कृति का संचालक, परिचायक, संवाहक है साहित्य
कुछ गीत, कविताएं, लिख लेने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता
ज़मीनी सच्चाईयों से जुड़कर जीने का एक नाम भी है साहित्य
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धागों का रिश्ता
कहने को कच्चे धागों का रिश्ता, पर मज़बूत बड़ा होता है
निःस्वार्थ भावों से जुड़ा यह रिश्ता बहुत अनमोल होता है
भाई यादों में जीता है जब बहना दूर चली चली जाती है
राखी-दूज पर मिलने आती है, तब आनन्द दूना होता है।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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हैं तो सब इंसान ही
एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
.
शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।
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धरा पर पांव टिकते नहीं
और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर
धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर
यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़
क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर
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उल्लू बोला मिठू से
उल्लू बोला मिठू से
चल आज नाम बदल लें
तू उल्लू बन जा
और मैं बनता हूँ तोता,
फिर देखें जग में
क्या-क्या होता।
जो दिन में होता
गोरा-गोरा,
रात में होता काला।
मैं रातों में जागूँ
दिन में सोता
मैं निद्र्वंद्व जीव
न मुझको देखे कोई
न पकड़ सके कोई।
-
आजा नाम बदल लें।
-
फिर तुझको भी
न कोई पिंजरे में डालेगा,
और आप झूठ बोल-बोलकर
तुझको न बोलेगा कोई
हरि का नाम बोल।
-
चल आज नाम बदल लें
चल आज धाम बदल लें
कभी तू रातों को सोना
कभी मैं दिन में जागूँ
फिर छानेंगे दुनिया का
सच-झूठ का कोना-कोना।
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इतिहास हमारा
इतिहास हमारा स्वर्णिम था, या था समस्याओं का काल
किसने देखा, किसने जाना, बस पढ़ा-सुना कुछ हाल
गल्प कथाओं से भरा, सत्य है या कल्पना कौन कहे
यूँ ही लड़ते-फिरते हैं, निकाल रहे बस बाल की खाल
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भोर का सूरज
भोर का सूरज जीवन की आस देता है
भोर का सूरज रोशनी का भास देता है
सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग
भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है
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क्षमा-मंत्र
कोई मांगने ही नहीं आता
हम तो
क्षमाओं का पिटारा लिए
कब से खड़े हैं।
सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं
भरने के लिए
टोकरा उठाये घूम रहे हैं।
आपको बता दें
हम तो दूध के धुले हैं,
महान हैं, श्रेष्ठ हैं,
सर्वश्रेष्ठ हैं,
और इनके
जितने पर्यायवाची हैं
सब हैं।
और समझिए
कितने दानी , महादानी हैं,
क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,
कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।
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आने वाला कल
अपने आज से परेशान हैं हम।
क्या उपलब्धियां हैं
हमारे पास अपने आज की,
जिन पर
गर्वोन्नत हो सकें हम।
और कहें
बदलेगा आने वाला कल।
.
कैसे बदलेगा
आने वाला कल,
.
डरे-डरे-से जीते हैं।
सच बोलने से कतराते हैं।
अन्याय का
विरोध करने से डरते हैं।
भ्रमजाल में जीते हैं -
आने वाला कल अच्छा होगा !
सही-गलत की
पहचान खो बैठे हैं हम,
बनी-बनाई लीक पर
चलने लगे हैं हम।
राहों को परखते नहीं।
बरसात में घर से निकलते नहीं।
बादलों को दोष देते हैं।
सूरज पर आरोप लगाते हैं,
चांद को घटते-बढ़ते देख
नाराज़ होते हैं।
और इस तरह
वास्तविकता से भागने का रास्ता
ढूंढ लेते हैं।
-
तो
कैसे बदलेगा आने वाला कल ?
क्योंकि
आज ही की तो
प्रतिच्छाया होता है
आने वाला कल।
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दर्दे दिल के निशान
काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।