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भीतर ही भीतर
न जाने कितने रंग
बिखरे पड़े हैं,
कितना अधूरापन
खंगालता है मन,
कितनी कहानियां
कही-अनकही रह जाती हैं,
कितने रंग बदरंग हो जाते हैं।
आज उतारती हूं
सबको
तूलिका से।
अपना मन भरमाती हूं,
दबी-घुटी कामनाओं को
रंग देती हूं,
भावों को पटल पर
निखारती हूं,
तूलिका से जिन्दगी संवारती हूं।
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वक्त कब कहां मिटा देगा
वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने
वक्त कब बदला लेगा कौन जाने
संभल संभल कर कदम रखना ज़रा
वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने
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चोट दिल पर लगती है
चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
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घर की पूरी खुशियाँ
आंगन में चरखा चलता था
आंगन में मंजी बनती थी
पशु पलते थे आंगन में
आँगन में कुँआ होता था
आँगन में पानी भरते थे
आँगन में चूल्हा जलता था
आँगन में रोटी पकती थी
आँगन में सब्ज़ी उगती थी
आँगन में बैठक होती थी
आँगन में कपड़े धुलते थे
आँगन में बर्तन मंजते थे।
गज़ भर के आँगन में
सब हिल-मिल रहते थे
घर की पूरी खुशियाँ
इस छोटे-से आँगन में बसती थीं
पूरी दुनिया रचती थीं।
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बंधनों का विरोध कर
जीवन बड़ा सरल सहज अपना-सा हो जाता है
रूढ़ियों के प्रतिकार का जब साहस आ जाता है
डरते रहते हैं हम यूं ही समाज की बातों से
बंधनों का विरोध कर मन तुष्टि पा जाता है
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विरोध के स्वर
आंख मूंद कर बैठे हैं, न सुनते हैं न गुनते हैं
सुनी-सुनाई बातों का ही पिष्ट पेषण करते हैं
दूर बैठै, नहीं जानते, कहां क्या घटा, क्यों घटा
विरोध के स्वर को आज हम देश-द्रोह मान बैठे हैं
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भीतर के भाव
हर पुस्तक के
आरम्भ और अन्त में
कुछ पृष्ठ
कोरे चिपका दिये जाते हैं
शायद
पुस्तकों को सहेजने के लिए।
किन्तु हम
बस पन्नों को ही
सहेजते रह जाते हैं
पुस्तकों के भीतर के भाव
कहाँ सहेज पाते हैं।
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क्षमा-मंत्र
कोई मांगने ही नहीं आता
हम तो
क्षमाओं का पिटारा लिए
कब से खड़े हैं।
सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं
भरने के लिए
टोकरा उठाये घूम रहे हैं।
आपको बता दें
हम तो दूध के धुले हैं,
महान हैं, श्रेष्ठ हैं,
सर्वश्रेष्ठ हैं,
और इनके
जितने पर्यायवाची हैं
सब हैं।
और समझिए
कितने दानी , महादानी हैं,
क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,
कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।
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जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं
जब तक चिल्लाओ न, कोई सुनता नहीं
सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां
दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं
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कौन हैं अपने कौन पराये
कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं
किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं
मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो
मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं