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उपर वाला
बहुत रिश्ते बांधकर देता है
लेकिन कहता है
कुछ तो अपने लिए
आप भी मेहनत कर
इसलिए जिन्दगी में
दोस्त आप ही ढूंढने पड़ते हैं
लेकिन कभी-कभी उपरवाला भी
दया दिखाता है
और एक अच्छा दोस्त झोली में
डालकर चला जाता है
लेकिन उसे समझना
और पहचानना आप ही पड़ता है।
कब क्या कह बैठती हूं
और क्या कहना चाहती हूं
अपने-आप ही समझ नहीं पाती
शब्द खिसकते है
कुछ अर्थ बनते हैं
भाव संवरते हैं
और कभी-कभी लापरवाही
अर्थ को अनर्थ बना देती है
सब कहते हैं मुझे
कम बोला कर, कम बोला कर
पर न जाने कितने दिन रह गये हैं
जीवन के बोलने के लिए
मन करता है
जी भर कर बोलूं
बस बोलती रहूं , बस बोलती रहूं
लेकिन ज्यादा बोलने की आदत
बहुत बार कुछ का कुछ
कहला देती है
जो मेरा अभिप्राय नहीं होता
लेकिन
जब मैं आप ही नहीं समझ पाती
तो किसी और को
कैसे समझा सकती हूं
किन्तु सोचती हूं
मेरे मित्र
मेरे भाव को समझोगे
हास-परिहास को समझोगे
न कि
शब्दों का बुरा मान जाओगे
उलझन को सुलझा दोगे
कान खींचोंगे मेरे
आंख तरेरोगे
न कोई
लकीर बनने दोगे अनबन की।
कई बार यूं ही
खिंची लकीर भी
गहरी होती चली जाती है
फिर दरार बनती है
उस पर दीवार चिनती है
इतना होने से पहले ही
सुलझा लेने चाहिए
बेमतलब मामले
तुम मेरे कान खींचो
और मै तुम्हारे
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शब्द नहीं, भाव चाहिए
शब्द नहीं, भाव चाहिए
अपनों को अपनों से
प्यार चाहिए
उंची वाणी चाहे बोलिए
पर मन में एक संताप चाहिए
क्रोध कीजिए, नाराज़गी जताईये,
पर मन में भरपूर विश्वास चाहिए,
कौन किसका, कब कहां
दिखाने की नहीं,
जताने की नहीं,
समय आने पर
अपनाने की बात है।
न मांगने से मिलेगा,
न चाहने से मिलेगा,
सच्चे मन से
भावों का आदान-प्रदान चाहिए,
आदर-सत्कार तो कहने की बात है,
शब्द नहीं, भाव चाहिए,
अपने-पराये का भेद भूलकर
बस एक भाव चाहिए।
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औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
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जामुन लटके पेड़ पर
जामुन लटके पेड़ पर
ऊंचे-ऊंचे रहते।
और हम देखो
आस लगाये
नीचे बैठै रहते।
आंधी आये, हवा चले
तो हम भी कुछ खायें।
एक डाली मिल गई नीची
हमने झूले झूले।
जामुन बरसे
हमने भर-भर लूटे।
माली आता देखकर
हम सब सरपट भागे।
चोरी-चोरी घर से
कोई लाया नमक
तो कोई लाया मिर्ची।
जिसको जितने मिल गये
छीन-छीनकर खाये।
साफ़ किया मुंह अच्छे-से
और भोले-भाले बनकर
घर आये।
मां ने “रंगे हाथ”
पकड़ी हमारी चोरी।
मां के हाथ आया डंडा
हम आगे-आगे
मां पीछे-पीछे भागे।
थक-हार कर बैठ गई मां।
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रिश्ते ऑनलाइन या ऑफलाइन
क्या ऑनलाइन रिश्ते ऑफलाइन रिश्तों पर हावी हो रहे हैं
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मेरी दृष्टि में ऑनलाइन रिश्ते ऑफलाइन रिश्तों पर हावी नहीं हो रहे हैंए दोनों का आज हमारे जीवन में अपना.अपना महत्व है। हर रिश्ते को साधकर रखना हमें आना चाहिएए फिर वह ऑनलाइन हो अथवा ऑफलाइन ।
वास्तव में ऑनलाइन रिश्तों ने हमारे जीवन को एक नई दिशा दी है जो कहीं भी ऑफलाइन रिश्तों पर हावी नहीं है।
अब वास्तविकता देखें तो ऑफलाइन रिश्ते रिश्तों में बंधे होते हैंए कुछ समस्याएंए कुछ विवशताएंए कुछ औपचारिकताएं, कुछ गांठें। यहां हर रिश्ते की सीमाएं हैंए बन्धन हैंए लेनदारीए देनदारी हैए आयु.वर्ग के अनुसार मान.सम्मान हैए जो बहुत बार इच्छा न होते हुए भीए मन न होते हुए भी निभानी पड़ती हैं। और कुछ स्वार्थ भी हैं। यहां हर रिश्ते की अपनी मर्यादा हैए जिसे हमें निभाना ही पड़ता है। ऐसा बहुत कम होता है कि ये रिश्ते बंधे रिश्तों से हटकर मैत्री.भाव बनते हों।
जीवन में कोई तो एक समय आता है जब हमारे पास अपने नहीं रहते, एक अकेलापन, नैराश्य घेर लेता है। और जो हैं, कितने भी अपने हों, हम उनसे मन की बात नहीं बांट पाते। यह सब मानते हैं कि हम मित्रों से जो बात कह सकते हैं बहुत बार बिल्कुल अपनों से भी शेयर नहीं कर पाते। ऐसा ही रिश्ता कभी-कभी कहीं दूर बैठे अनजाने रिश्तों में मिल जाता है। और वह मिलता है ऑनलाईन रिश्ते में।
किन्तु ऑनलाइन रिश्तों में कोई किसी भी प्रकार का बन्धन नहीं है। एक नयापन प्रतीत होता हैए एक सुलझापनए जहां मित्रता में आयुए वर्ग का बन्धन नहीं होता। बहुत बार हम समस्याओं से घिरे जो बात अपनों से नहीं कर पातेए इस रिश्ते में बात करके सुलझा लेते हैं। एक डर नहीं होता कि मेरी कही बात सार्वजनिक हो जायेगी।
हांए इतना अवश्य है कि रिश्ते चाहे ऑनलाइन हों अथवा ऑफलाइनए सीमाएं दोनों में हैंए अतिक्रमण दोनों में ही नहीं होना चाहिए।
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इंसानों से काम करेंगें
इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें
आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे
बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात
यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।
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निद्रा पर एक झलकी
जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है
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सच आज लिख ज़रा
जीवन का हर सच, आज लिख ज़रा
झूठ को समझकर, आज लिख ज़रा
न डर किसी से, आज कोई क्या कहे
राज़ खोल दे आज, हर बात लिख ज़रा
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अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता
घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां
अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
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सपने तो सपने होते हैं
सपने तो सपने होते हैं
कब-कब अपने होते हैं
आँखो में तिरते रहते हैं
बातों में अपने होते हैं।
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वक्त की रफ्तार देख कर
वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।
आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।
वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।