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बहुत याद आती हैं
मां के हाथ की वो दो सूखी रोटियां
आम की फांक के साथ
अखबार के पन्ने में लपेटकर दिया करती थी
स्कूल के लिए।
और उन दो सूखी रोटियों की ताकत से
हम दिन भर मस्त रहते थे।
आम की फांक को तब तक चूसते थे
जब तक उसकी जान नहीं निकल जाती थी।
चूल्हे की आग में तपी रोटियां
एक बेनामी सी दाल-सब्जी
अजब-गजब स्वाद वाली
कटोरियां भर-भर पी जाते थे
आग में भुने आलू-कचालू
नमक के साथ निगल जाते थे।
चूल्हे को घेरकर बैठे
बतियाते, हंसते, लड़ते,
झीना-झपटी करते।
अपनी थाली से ज्यादा स्वाद
दूसरे की थाली में आता था।
रात की बची रोटियों का करारापन
चाय के प्याले के साथ।
और तड़का भात नाश्ते में
खट्टी-मीठी चटनियां
गुड़-शक्कर का मीठा
चूरी के साथ खा जाते थे पूरी रोटी।
जिन्दगी की आग में सिंकी मां,
और उसके हाथ की बनी रोटियों से मिली
संघर्ष की पौष्टिकता
आज भी भीतर ज्वलन्त है।
छप्पन भोग बनाने-खाने के बाद भी
तरसती हूं इस स्वाद के लिए।
बनाने की कोशिश करती हूं
पर वह स्वाद तो मां के साथ चला गया।
अगर आपके घर में हो ऐसी रोटियां और ऐसा स्वाद
तो मुझे ज़रूर न्यौता देना
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पहचान नहीं
धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए
जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए
नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं
जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए
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हमको छुट्टा दे सरकार
रंजोगम में डूब गये हैं, गोलगप्पे हो गये बीस के चार
कितने खायें, कैसे खायें, नोट मिला है दो हज़ार
कहता है भैया हमसे, सारे खाओ या फिर जाओ
हम ढाई आने के ग्राहक हैं, हमको छुट्टा दे सरकार
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निंदक नियरे राखिये
निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय
बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय ..
उक्त दोहे की सप्रसंग व्याख्या
******************
यह बात सम्भवत: पन्द्रहवीं-सोहलवीं शती की है जब हमें निन्दक की तलाश हुआ करती थी। उस काल में निन्दक की नियुक्ति के क्या नियम थे नहीं ज्ञात। कहा जाता है कि राजा लोग अपने दरबार में निन्दक नियुक्त करते होंगे। आम जनता कहां निन्दक रख पाती होगी।
विचारणीय यह कि उस काल में वर्तमान की भांति रोज़गार कार्यालय नहीं हुआ करते थे। समाचार पत्र, दूरभाष, मोबाईल भी नहीं थे कि विज्ञापन दिया, अथवा एक नम्बर घुमाया और साक्षात्कार के लिये बुला लिया। फिर कैसे निन्दक नियरे रखते होंगे, कैसे ढूंढते होंगे एक अच्छा निन्दक, यही अनुसंधान का विषय है। कोई डिग्री, कोर्स का भी युग नहीं था फिर निन्दक के लिए क्या और कैसे मानदण्ड निर्धारित किये जाते होंगे। लिखित परीक्षा होती होगी अथवा केवल साक्षात्कार ही लिया जाता होगा। चिन्तित हूं, सोच-सोचकर इस सबके बारे में जबसे उक्त दोहा पढ़ा है।
किन्तु यह बात तथ्यपूर्वक कही जा सकती है कि यह दोहा मध्यकाल का नहीं है। कपोल-कल्पित कथाओं के अनुसार इस दोहे को मध्यकाल के भक्ति काल के किन्हीं कबीर दास द्वारा रचित दोहा बताया गया है। वैज्ञानिक एवं गहन अनुसंधान द्वारा यह तथ्य प्रमाणित है कि भक्ति काल में साबुन का आविष्कार नहीं हुआ था। और यदि था तो कौन सा साबुन बिना पानी के प्रयोग किया जाता होगा।
अब इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।
आधुनिक काल में इस पद की कोई आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सजग निन्दक है, जिसे पानी, साबुन की भी आवश्यकता नहीं है। एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं।
इसी अवसर पर हम अपने भीतर झांकते हैं।
निष्कर्ष :
इस कारण यह दोहा प्राचीन एवं अवार्चीन दोनों ही कालों में अर्थहीन, महत्वहीन है।
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प्रेम की नवीन परिभाषा और कृष्ण
कभी सोचा नहीं मैंने
इस तरह तुम्हारे लिए।
ऐसा तो नहीं कि प्रेम-भाव,
श्रृंगार भाव नहीं मेरे मन में।
किन्तु तुम्हारी प्रेम-कथाओं का
युगों-युगों से
इतना पिष्ट-पेषण हुआ
कि भाव ही निष्ठुर हो गये।
स्त्रियां ही नहीं
पुरुष भी राधे-राधे बनकर
तुम्हारे प्रेम में वियोगी हो गये।
निःसंदेह, सौन्दर्य के रूप हो तुम।
तुम्हारी श्याम आभा,
मोर पंख के साथ
मन मोह ले जाती है।
राधा के साथ
तुम्हारा प्रेम, नेह,
यमुना के नील जल में
गोपियों के संग रास-लीला,
आह ! मन बहक-बहक जाता है।
लेकिन, इस युग में
ढूंढती हूं तुम्हारा वह रूप,
अपने-परायों को
जीना सिखलाता था।
प्रेम की एक नवीन परिभाषा पढ़ाता था।
सत्य-असत्य को परिभाषित करता था,
अपराधी को दण्डित करता था,
करता था न्याय, बेधड़क।
चक्र घूमता था उसका,
उसकी एक अंगुली से परिभाषित
होता था यह जगत।
हर युग में रूप बदलकर
प्रेम की नवीन परिभाषा सिखाते थे तुम।
इस काल में कब आओगे,
आंखें बिछाये बैठे हैं हम।
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ज़िन्दगी लगती बेमानी है
जन्म की अजब कहानी है, मरण से जुड़ी रवानी है।
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पंक्तियों में लगे शवों का टोकन से होगा संस्कार,
फ़ुटपाथ पर लगी पंक्तियां, ज़िन्दगी लगती बेमानी है।
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वसुधैव कुटुम्बकम्
एक आस हो, विश्वास हो, बस अपनेपन का भास हो
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नि:स्वार्थ, वसुधैव कुटुम्बकम् का एक तो प्रयास हो
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पुस्तकों में लिखते-लिखते
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शब्द आकार लेने लगे।
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दौड़ने लगे।
सही-गलत परखने लगे।
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सजीव होने लगीं,
लेखन से विलग
अपनी बात कहने लगीं।
पूछने लगीं, जांचने लगीं,
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अंधेरे से रोशनियों में
चलने लगीं।
हाथ थाम आगे बढ़ने लगीं।
चल, इस ठहरी, सहमी
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बनी-बनाई, अजनबी
कहानियों से बाहर निकलते हैं,
अपनी कहानियाँ आप रचते हैं।
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गगन पर बिखरी रंगीनिया
सूरज की किरणें देखो नित नया कुछ लाती है
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पत्ते-पत्ते पर खेल रही ओस की बूंदे झिलमिल
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चल बाहर आ
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न डर
जीवन का आनन्द ले
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वृक्षों की लहराती लताएँ
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हरीतिमा मन के भावों को
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मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
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स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम
चिन्ता किसी भी समस्या की,
जब तक विकराल न हो जाये।
बात तो करते हैं
किन्तु समाधान ढूँढना
हमारा काम नहीं है।
हाँ, नौटंकी हम खूब
करना जानते हैं।
खूब चिन्ताएँ परोसते हैं
नारे बनाते हैं
बातें बनाते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में ही
हमें याद आता है
जल संरक्षण
शीत ऋतु में आप
स्वतन्त्र हैं
बर्बादी के लिए।
जल की ही क्यों,
समस्या हो पर्यावरण की
वृक्षारोपण की बात हो
अथवा वृक्षों को बचाने की।
या हो बात
पशु-पक्षियों के हित की
याद आ जाती है
कभी-कभी,
खाना डालिए, पानी रखिए,
बातें बनाईये
और कोई नई समस्या ढूँढिये
चर्चा के लिए।
बस
स्थायी समाधान की बात मत करना।