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जामुन लटके पेड़ पर
ऊंचे-ऊंचे रहते।
और हम देखो
आस लगाये
नीचे बैठै रहते।
आंधी आये, हवा चले
तो हम भी कुछ खायें।
एक डाली मिल गई नीची
हमने झूले झूले।
जामुन बरसे
हमने भर-भर लूटे।
माली आता देखकर
हम सब सरपट भागे।
चोरी-चोरी घर से
कोई लाया नमक
तो कोई लाया मिर्ची।
जिसको जितने मिल गये
छीन-छीनकर खाये।
साफ़ किया मुंह अच्छे-से
और भोले-भाले बनकर
घर आये।
मां ने “रंगे हाथ”
पकड़ी हमारी चोरी।
मां के हाथ आया डंडा
हम आगे-आगे
मां पीछे-पीछे भागे।
थक-हार कर बैठ गई मां।
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मंजी दे जा मेरे भाई
भाई मेरे
मंजी दे जा।
बड़े काम की है यह मंजी।
-
सर्दी के मौसम में,
प्रात होते ही
यह मंजी
धूप में जगह बना लेती है।
सारा दिन
धीरे-धीरे खिसकती रहती है
सूरज के साथ-साथ।
यहीं से
हमारे दिन की शुरूआत होती है,
और यहीं शाम ढलती है।
पूरा परिवार समा जाता है
इस मंजी पर।
कोई पायताने, कोई मुहाने,
कोई बाण पर, कोई तान पर,
कोई नवार पर,
एक-दूसरे की जगह छीनते।
बतंगड़बाजी करते ]
निकलता है पूरा दिन
इसी मंजी पर।
सुबह का नाश्ता
दोपहर की रोटी,
दिन की झपकी,
शाम की चाय,
स्वेटर की बुनाई,
रजाईयों की तरपाई,
कुछ बातचीत, कुछ चुगलाई,
पापड़-बड़ियों की बनाई,
मटर की छिलकाई,
साग की छंटाई,
बच्चों की पढ़ाई,
आस-पड़ोस की सुनवाई।
सब इसी मंजी पर।
-
भाई मेरे, मंजी दे जा।
दे जा मंजी मेरे भाई।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी।
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी।
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी।
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी।
किसी और से क्या लेना,
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी।
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी।
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कहते हैं कोई ऊपरवाला है
कहते हैं कोई ऊपरवाला है, सब कुछ वो ही तो दिया करता है
पर हमने देखा है, जब चाहे सब कुछ ले भी तो लिया करता है
लोग मांगते हाथ जोड़-जोड़कर, हरदम गिड़गिड़ाया करते हैं
पर देने की बारी सबसे ज़्यादा टाल-मटोल वही किया करता है
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चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।
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प्रेम-सम्बन्ध
दो क्षणिकाएं
******-******
प्रेम-सम्बन्ध
कदम बहके
चेहरा खिले
यूं ही मुस्काये
होंठों पर चुप्पी
पर आंखें
कहां मानें
सब कह डालें।
*-*
प्रेम-सम्बन्ध
मानों बहता दरिया
शीतल समीर
बहकते फूल
खिलता पराग
ठण्डी छांव
आकाश से
बरसते तुषार।
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जीवन के अनमोल पल
यादों की गठरियों में कुछ अनमोल रत्न हुआ करते हैं
कभी कभी कुछ रिसते-से जख्म भी हुआ करते हैं
इन सबके बीच झूलता है मन,क्या करे कोई
जीवन के पल जैसे भी हों,सब अनमोल हुआ करते है।
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फागुन आया
बादलों के बीच से
चाँद झांकने लगा
हवाएँ मुखरित हुईं
रवि-किरणों के
आलोक में
प्रकृति गुनगुनाई
मन में
जैसे तान छिड़ी,
लो फागुन आया।
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पशु-पक्षियों का आयात-निर्यात
अभयारण्य
बड़े होते जा रहे हैं
हमारे घर छोटे।
हथियार
ज़्यादा होते जा रहे हैं
प्रेम-व्यवहार ओछे।
पढ़ा करते थे
हम पुस्तकों में
प्रकृति में पूरक हैं
सभी जीव-जन्तु
परस्पर।
कौन किसका भक्षक
कौन किसका रक्षक
तय था सब
पहले से ही।
किन्तु
हम मानव हैं
अपने में उत्कृष्ट,
प्रकृति-संचालन को भी
ले लिया अपने हाथ में।
पहले वन काट-काटकर
घर बना लिए
अब घरों में
वन बना रहे हैं
पौधे तो
रोपित कर ही रहे थे
अब पशु-पक्षियों के
आयात-निर्यात करने का
समय आ गया है।
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इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे
नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया
चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया
प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,
इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया
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आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन
झुलसते हैं पांव, सीजता है मन, तपता है सूरज, पर प्यास तो बुझानी है
न कोई प्रतियोगिता, न जीवटता, विवशता है हमारी, बस इतनी कहानी है
इसी आवागमन में बीत जाता है सारा जीवन, न कोई यहां समाधान सुझाये
और भी पहलू हैं जिन्दगी के, न जानें हम, बस इतनी सी बात बतानी है