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कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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बस नेह की धरा चाहिए
यहां पत्थरों में फूल खिल रहे हैं
और वहां
देखो तो
इंसान पत्थर दिल हुए जा रहे हैं।
बस !!
एक बुरी-सी बात कह कर
ले ली न वाह –वाह !!!
अभी तो
पूरी भी नहीं हुई
मेरी बात
और आपने
पता नहीं क्या-क्या सोच लिया।
कहां हैं इंसान पत्थर दिल
नहीं हैं इंसान पत्थर दिल
दिलों में भी फूल खिलते हैं
फूल क्या पूरे बाग-बगीचे
महकते हैं
बस नेह की धरा चाहिए
अपनेपन की पौध डालिये
विश्चवास के नीर से सींचिए
थोड़ी देख-भाल कीजिए
प्यार-मनुहार से संवारिये
फिर देखिये
पत्थर भी पिघलेंगे
पत्थरों में भी फूल खिलेंगे।
पर इंसान नहीं हैं
पत्थर दिल !!!!
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ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए
ज़िन्दगी मिली है आनन्द लीजिए, मौत की क्यों बात कीजिए
मन में कोई भटकन हो तो आईये हमसे दो बात कीजिए
आंख खोलकर देखिए पग-पग पर खुशियां बिखरी पड़ी हैं
आपके हिस्से की बहुत हैं यहां, बस ज़रा सम्हाल कीजिए
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बहकती हैं पत्तियों पर ओस की बूंदें
छू मत देना इन मोतियों को टूट न जायें कहीं।
आनन्द का आन्तरिक स्त्रोत हैं छूट न जाये कहीं।
जब बहकती देखती हूं इन पत्तियों पर ओस की बूंदे ,
बोलती हूं, ठहर-ठहर देखो, ये फूट न जाये कहीं ।
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शंख-ध्वनि
तुम्हारी वंशी की धुन पर विश्व संगीत रचता है
तुम्हारे चक्र की गति पर जीवन चक्र चलता है
दूध-दहीं माखन, गैया-मैया, ग्वाल-बाल सब
तुम्हारी शंख-ध्वनि से मन में सब बसता है।
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नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे
किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।
तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य
*-*-*-*-*-*-*
आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?
अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?
अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।
चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।
मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।
कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।
*
किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।
मैंने नज़रिया बदल लिया।
करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।
हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।
अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।
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इसे राजनीति कहते हैं
आजकल हम
एक अंगुली से
एक मशीन पर
टीका करते हैं,
किसी की
कुर्सी खिसक जाती है,
किसी की टिक जाती है।
कभी सरकारें गिर जाती हैं,
कभी खड़ी हो जाती हैं।
हम हतप्रभ से
देखते रह जाते हैं,
हमने तो किसी और को
टीका किया था,
अभिषेक
किसी और का चल रहा है।
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चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया
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ज़िन्दगी सहज लगने लगी है
आजकल, ज़िन्दगी
कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।
शीतल हवाओं से भी
चुभन-सी होने लगी है।
नयानाभिराम दृश्य
चुभने लगे हैं नयनों में,
हरीतिमा में भी
कालिमा आभासित होने लगी है।
सूरज की तपिश का तो
आभास था ही,
ये चाँद भी अब तो
सूरज-सा तपने लगा है।
मन करता है
कोई सहला जाये धीरे से
मन को,
किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी
जलन होने लगी है।
ज़िन्दगी बीत जाती है
अपनों और परायों में भेद समझने में।
कल क्या था
आज क्या हो गया
और कल क्या होगा कौन जाने
क्यों तू सच्चाईयों से
मुँह मोड़ने लगी है।
कहाँ तक समझायें मन को
अब तो यूँ ही
ऊबड़-खाबड़ राहों पर
ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।
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क्या होगा वक्त के उस पार
वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,
खुशियां हैं वक्त के इस पार।
दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,
आवागमन है वक्त के इस पार।
कल किसने देखा है,
कौन जाने क्या होगा,
क्यों सोच में डूबे,
आज को जी लेते हैं,
क्यों डरें,
क्या होगा वक्त के उस पार।
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जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर
प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है
इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर