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एक भाव है ध्वजा,
देश के प्रति साख है ध्वजा।
प्रतीक है,
आन का, बान का, शान का।
.
तीन रंगों से सजा,
नारंगी, श्वेत, हरा
देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,
शक्ति, साहस की प्रेरणा,
सत्य-शांति का प्रतीक,
धर्म चक्र से चिन्हित,
प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता
की प्रेरणा।
भाव है अपनत्व का।
शीश सदा झुकता है
शीष सदा मान से उठता है,
जब लहराता है तिरंगा।
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किस युग में जी रहे हो तुम
मेरा रूप तुमने रचा,
सौन्दर्य, श्रृंगार
सब तुमने ही तो दिया।
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता
सब तुम्हारी ही तो देन है।
मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं
किस युग में, कब-कब
अवतरित हुआ था मैं।
क्यों आया था मैं।
क्या रचा था मैंने इतिहास।
कौन सी कथा, कौन सा युद्ध
और कौन सी लीला।
हां, इतना अवश्य स्मरण है
कि मैंने रचा था एक युग
किन्तु समाप्त भी किया था एक युग।
तब से अब तक
हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।
चकित हूं, यह देखकर
कि तुम अभी भी
उसी युग में जी रहे हो।
वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं
वही माटी, वही बाल-गोपाल
राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,
लीला और रास-लीलाएं।
सोचा कभी तुमने
मैंने जब भी
पुन:-पुन: अवतार लिया है
एक नये रूप में, एक नये भाव में
एक नये अर्थ में लिया है।
काल के साथ बदला हूं मैं।
हर बार नये रूप में, नये भाव में
या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो
युगानुरूप
नये अवतार में ढाला है मैंने
अपने-आपको।
किन्तु, तुम
आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।
तो इतना जान लो
कि तुम
मेरी आराधना तो करते हो
किन्तु मेरे साथ नहीं हो।
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बेनाम वीरों को नमन करूं
किस-किस का नाम लूं
किसी-किस को छोड़ दूं
कहां तक गिनूं,
किसे न नमन करूं
सैंकड़ों नहीं लाखों हैं वे
देश के लिए मर मिटे
इन बेनाम वीरों को
क्यों न नमन करूं।
कोई घर बैठे कर्म कर रहा था
तो कोई राहों में अड़ा था
किसी के हाथ में बन्दूक थी
तो कोई सबके आगे
प्रेरणा-स्रोत बन खड़ा था।
कोई कलम का सिपाही था
तो कोई राजनीति में पड़ा था।
कुछ को नाम मिला
और कुछ बेनाम ही
मर मिटे थे
सालों-साल कारागृह में पड़े रहे,
लाखों-लाखों की एक भीड़ थी
एक ध्वज के मान में
देश की शान में
मर मिटी थी
इसी बेनाम को नमन करूं
इसी बेनाम को स्मरण करूं।
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सपने तो सपने होते हैं
सपने तो सपने होते हैं
कब-कब अपने होते हैं
आँखो में तिरते रहते हैं
बातों में अपने होते हैं।
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स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई
एक स्वाधीनता हमने
अंग्रेज़ो से पाई थी,
उसका रंग लाल था।
पढ़ते हैं कहानियों में,
सुनते हैं गीतों में,
वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।
किसी समूह,
जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,
बेनाम थे वे सब।
बस एक नाम जानते थे
एक आस पालते थे,
आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।
तिरंगे के मान के साथ
स्वाधीनता पाई हमने
गौरवशाली हुआ यह देश।
मुक्ति मिली हमें वर्षों की
पराधीनता से।
हम इतने अधीर थे
मानों किसी अबोध बालक के हाथ
जिन्न लग गया हो।
समझ ही नहीं पाये,
कब स्वाधीनता हमारे लिए
स्वच्छन्दता बन गई।
पहले देश टूटा था,
अब सोच बिखरने लगी।
स्वतन्त्रता, आज़ादी और
स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।
मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए
कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,
नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।
भेड़-चाल चल रहे हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों के साथ
रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।
-
वे, जो हर युग में आते थे
वेश और भेष बदल कर,
लगता है वे भी
हार मान बैठ हैं।
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कहां सीख पाये हैं हम
नयनों की एक बूंद
सागर के जल से गहरी होती है
ढूंढोगे तो किन्तु
जलराशि जब अपने तटबन्धों को
तोड़ती है
तब भी विप्लव होता है
और जब भीतर ही भीतर
सिमटती है तब भी।
कहां सीख पाये हैं हम
सीमाओं में रहना।
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कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी
हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी
पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा
फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी
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बालपन-सा था कभी
बालपन-सा था कभी निर्दोष मन
अब देखो साधता है हर दोष मन
कहां खो गई वो सादगी वो भोलापन
ढू्ंढता है दूसरों में हर खोट मन
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नियति
जन्म होता है
मरने के लिए।
लड़कियां भी
जन्म लेती हैं
मरने के लिए।
अर्थात्
जन्म लेकर
मरना है
हर लड़की को।
फिर, जब
मरना तय है
तो क्या फ़र्क पड़ता है
कि वह
किस तरह मरे।
कल की मरती
आज मरे।
कल का क्लेश
आज कटे।
जलकर मरे
या डूबकर मरे।
या पैदा होने से
पहले ही मरे।
जब जन्म होता ही
मरने के लिए है
तो जल्दी जल्दी मरे।
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जामुन लटके पेड़ पर
जामुन लटके पेड़ पर
ऊंचे-ऊंचे रहते।
और हम देखो
आस लगाये
नीचे बैठै रहते।
आंधी आये, हवा चले
तो हम भी कुछ खायें।
एक डाली मिल गई नीची
हमने झूले झूले।
जामुन बरसे
हमने भर-भर लूटे।
माली आता देखकर
हम सब सरपट भागे।
चोरी-चोरी घर से
कोई लाया नमक
तो कोई लाया मिर्ची।
जिसको जितने मिल गये
छीन-छीनकर खाये।
साफ़ किया मुंह अच्छे-से
और भोले-भाले बनकर
घर आये।
मां ने “रंगे हाथ”
पकड़ी हमारी चोरी।
मां के हाथ आया डंडा
हम आगे-आगे
मां पीछे-पीछे भागे।
थक-हार कर बैठ गई मां।
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दीपावली पर्व की शुभकामनाएं
नेह की बाती, अपनत्व की लौ, घृत है विश्वास
साथ-साथ चलते रहें तब जीवन है इक आस
जानती हूं चुक जाता है घृत समय की धार में
मन में बना रहें ये भाव तो जीवन भर है हास