जब मांगो हाथ मदद का तब छिपने के स्थान बहुत हैं
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बातों में, घातों में, शूरवीर, बलशाली, बलवान, बहुत हैं
जब मांगो हाथ मदद का, तब छिपने के स्थान बहुत हैं
कैसे जाना, कितना जाना, किसको माना था अपना,
क्या बतलाएं, कैसे बतलाएं, वैसे लेने को तो नाम बहुत है
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उनकी तरह बोलना ना सीख जायें
कभी गांधी जी के
तीन बन्दरों ने संदेश दिया था
बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।
सुना है मैंने
ऐसा ही कुछ संदेश
जैन, बौद्ध, सिक्ख, हिन्दू
मतावलम्बियों ने भी दिये थे,
कुछ मर्यादाओं, नैतिकता, गरिमा
की बात करते थे वे।
पुस्तकों में भी छपता था यही सब।
बच्चों को आज भी पढ़ाते हैं हम यह पाठ।
किन्तु अब ज्ञात हुआ
कि यह सब कथन
आम आदमी के लिए होते हैं
बड़े लोग इन सबसे उपर होते हैं।
वे जो आज देश के कर्णधार
कहलाते हैं
भारत के महिमामयी गणतन्त्र को
आजमाने बैठे हैं
राजनीति के मोर्चे पर हाथ
चलाने बैठे हैं
उनको मत सुनना, उनको मत देखना
उनसे मत बोलना
क्योंकि
भारत का महिमामयी लोकतन्त्र,
अब राजनीति का
अखाड़ा हो गया
दल अब दलदल में धंसे
मर्यादाओं की बस्ती
उजड़ गई
भाषा की नेकी बिखर गई
शब्दों की महिमा
गलित हुई
संसद की गरिमा भंग हुई
किसने किसको क्या कह डाला
सुनने में डर लगता है
प्रेम-प्यार-अपनापन कहीं छिटक गया
घृणा, विद्वेष, विभाजन की आंधी
सब निगल गई
कभी इनके पदचिन्हों के
अनुसरण की बात करते थे,
अब हम बस इतनी चिन्ता करते हैं
हम अपनी मर्यादा में रह पायें
सब देखें, सब सुनें,
मगर,उनकी तरह
बोलना ना सीख जायें
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बुद्धम् शरणम गच्छामि
कथाओं के अनुसार आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की कथा है। 563 ईसा पूर्व। एक राजकुमार अपनी सोती हुई पत्नी एवं नवजाव शिशु को आधी रात में त्याग कर ज्ञान प्राप्ति के लिए चला गया। उस युवक ने घोर तपस्या की, साधना की और दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने सम्पूर्ण जगत को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए, सत्य एवं दिव्य ज्ञान की खोज के लिए जगत के हित के लिए वर्षों कठोर साधना की और अन्त में बिहार बोध गया में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई ओर वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गये।
जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने अपने परिवार का परित्याग किया, जो कि उनका दायित्व था क्या उस ज्ञान का उपयोग आज यह संसार कर रहा है? क्या जगत के लिए उनका ज्ञान और उपदेश चरम उपलब्धि था?
यदि था तो उनके उपरान्त क्यों आवश्यकता पड़ी कि एक-अनेक युग-पुरुष आये जिन्होंने संसार को पुनः उपदेश दिये, अपने ज्ञान की धारा बहाई, ग्रंथ लिखे गये, आप्त वाक्य बने और यह क्रम आज भी चल रहा है। एक समय बाद ज्ञान की धारा धर्म का रूप ले लेती है। उपदेश की पुनरावृत्ति होती है हर युग में, केवल नाम बदलते हैं, स्थापनाएँ नहीं बदलतीं।
जब भी गौतम बुद्ध के त्याग, ज्ञान, बौद्धित्व, साधना की बात की जाती है मुझे केवल नवजात शिशु और यशोधरा की याद आती है, उनके प्रति कर्तव्य, विश्वास की डोर टूटी तो सम्पूर्ण जगत के साथ कैसे जोड़ी?
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एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
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जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।
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जल लेने जाते कुएँ-ताल
बाईसवीं सदी के
मुहाने पर खड़े हम,
चाँद पर जल ढूँढ लाये
पर इस धरा पर
अभी भी
कुएँ, बावड़ियों की बात
बड़े गुरूर से करते हैं
कितना सरल लगता है
कह देना
चली गोरी
ले गागर नीर भरन को।
रसपान करते हैं
महिलाओं के सौन्दर्य का
उनकी कमनीय चाल का
घट भरकर लातीं
प्रेमरस में भिगोती
सखियों संग मदमाती
कहीं पिया की आस
कहीं राधा की प्यास।
नहीं दिखती हमें
आकाश से बरसती आग
बीहड़ वन-कानन
समस्याओं का जंजाल
कभी पुरुषों को नहीं देखा
सुबह-दोपहर-शाम
जल लेने जाते कुएँ-ताल।
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छनक-छन तारे छनके
ज़रा-सा मैंने हाथ बढ़ाया, नभ मेरे हाथ आया
छनक-छनक-छन तारे छनके, चंदा भी मुस्काया
सूरज की गठरी बांधी, सपनों की सीढ़ी तानी
इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरे, मनमोहक चित्र बनाया
बदली के पीछे से कुछ बूंदे निकली, मन भरमाया
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धरा बिना आकाश नहीं
पंख पसारे चिड़िया को देखा
मन विस्तारित आकाश हुआ
मन तो करता है
पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले
किन्तु
लौट धरा पर उतरूं कैसे,
कौन सिखलाएगा मुझको।
उंचा उड़ना बड़ा सरल है
पर कैसे जानूंगी फिर
धरा पर लौटूं कैसे मैं।
दूरी तो शायद पल भर की है
पर मन जब ऊंचा उड़ता है
दूर-दूर सब दिखता है
सब छोटे-छोटे-से लगते हैं
और अपना रूप नहीं दिखता
धरा बिना आकाश नहीं
पंछी तो जाने यह बात
बस हम ही भूले बैठें हैं यह।
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जीवन का राग
रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं
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जीवन की डगर चल रही
राहें पथरीली
सुगम सुहातीं।
कदम-दर कदम
चल रहे
साथ न छूटे
बात न छूटे,
अगली-पिछली भूल
बस बढ़ते जाते।
साथ-साथ
चलते जाते।
क्यों आस करें किसी से
हाथों में हाथ दे
बढ़ते जाते।
जीवन की डगर चल रही,
मंज़िल की ओर बढ़ रही,
न किसी से शिकवा
न शिकायत।
धीरे-धीरे
पग-भर सरक रही,
जीवन की डगर चल रही।
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मेरे मन की चांदनी
सुना है मैंने
शरद पूर्णिमा के
चांद की चांदनी से
खीर दिव्य हो जाती है।
तभी तो मैं सोचता था
तुम्हें चांद कह देने से
तुम्हारी सुन्दरता
क्यों द्विगुणित हो जाती है,
मेरे मन की चांदनी
खिल-खिल जाती है।
चंदा की किरणें
धरा पर जब
रज-कण बरसाती हैं,
रूप निखरता है तुम्हारा,
मोतियों-सा दमकता है,
मानों चांदनी की दमक
तुम्हारे चेहरे पर
देदीप्यमान हो जाती है।
कभी-कभी सोचता हूं,
तुम्हारा रूप चमकता है
चांद की चांदनी से,
या चांद
तुम्हारे रूप से रूप चुराकर
चांदनी बिखेरता है।