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महाभारत का युद्ध पलट गया जब नर या कुंजर कहा गया।
गज-गामिनी, मदमस्त चाल कहने वाला कवि आज कहां गया।
नहीं भाते इसे मानव-निर्मित वन-अभयारण्य, जल-स्त्रोत यहां।
मुक्त जीव, जब मूड बना, तब मनमौजी हर की पौड़ी नहा गया।
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स्त्री की बात
जब कोई यूं ही
स्त्री की बात करता है
मैं समझ नहीं पाती
कि यह राहत की बात है
अथवा चिन्ता की
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अपने-आपसे करते हैं हम फ़रेब
अपने-आपसे करते हैं
हम फ़रेब
जब झूठ का
पर्दाफ़ाश नहीं करते।
किसी के धोखे को
सहन कर जाते हैं,
जब हँसकर
सह लेते हैं
किसी के अपशब्द।
हमारी सच्चाई
ईमानदारी का
जब कोई अपमान करता है
और हम
मन मसोसकर
रह जाते हैं
कोई प्रतिवाद नहीं करते।
हमारी राहों में
जब कोई कंकड़ बिछाता है
हम
अपनी ही भूल समझकर
चले रहते हैं
रक्त-रंजित।
औरों के फ़रेब पर
तालियाँ पीटते हैं
और अपने नाम पर
शर्मिंदा होते हैं।
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छाता लेकर निकले हम
छाता लेकर निकले हम
देखें बारिश में
कितना है दम।
भीगने से
न जाने क्यों
लोगों का निकलता है दम।
छाता कर देंगे बंद
जमकर भीगेंगे हम।
जब लग जायेगी ठण्डी
तब लौटेंगे घर को हम
मोटी मोटी डांट पड़ेगी
फिर हलवा-पूरी,
चाट पकौड़ी जी भर
खायेंगे हम।
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तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर
जीवन में सारे काम
सदा
जल्दबाज़ी से नहीं होते।
कभी-कभी
प्रतीक्षा के दो पल
बड़े लाभकारी होते हैं।
बिगड़ी को बना देते हैं
ठहरी हुई
ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।
समझाया था तुम्हें
पर तुम्हारा
अंहकार हावी रहा
मेरे वादों पर।
मैंने कब इंकार किया था
कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा
जीवन की राहों में।
हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता
एक विश्वास की झलक भी
अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।
किन्तु
तुम्हारा अंहकार हावी रहा,
मेरे वादों पर।
अब न सुनाओ मुझे
कि मैं अकेले ही चलता रहा।
ये चयन तुम्हारा था।
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घन-घन-घन घनघोर घटाएं
घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।
कुछ बूंदें बहकीं,
बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।
बूंदों का सागर बिखरा ।
कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,
कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।
रवि ने मौका ताना,
सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।
ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर
फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।
सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते
डाली पर नव-संदेश खिले
रंगों से धरती महक उठी।
पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया
की किलकारी से नभ गूंज उठा
मानों बोली, उठ देख ज़रा
कौन आया ! बसन्त आया!!!
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अंधविश्वासों में जीते
कौओं की पंगत लगी
बैठे करें विचार
क्यों न हम सब मिलकर करें
इस मानव का बहिष्कार
किसी पक्ष में हमको पूजे
कभी उड़ायें पत्थर मार।
यूं कहते मुझको काला-काला,
मेरी कां-कां चुभती तुमको
मनहूस नाम दिया है मुझको
और अब मैं तुमको लगता प्यारा।
मुझको रोटी तब डाले हैं
जब तुम पर शामत आन पड़ी,
बासी रोटी, तैलीय रोटी
तुम मुझको खिलाते हो।
अपने कष्ट-निवारण के लिए
मुझे ढूंढते भागे हो।
किसी-किसी के नाम पर
हमें लगाते भोग
अंधविश्वासों में जीते
बाबाओं के चाटें तलवे
मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।
जब ज़िन्दा होता है मानव
तब क्या करते हैं ये लोग।
न चाहिए मुझको तेरी
दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।
मुंडेर तेरी पर कां-कां करता
बच्चों का मन बहलाता हूं।
अपनी मेहनत की खाता हूं।
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मन की भोली-भाली हूं
डील-डौल पर जाना मत
मुझसे तुम घबराना मत
मन की भोली-भाली हूं
मुझसे तुम कतराना मत
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कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
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अन्तर्द्वन्द
हर औरत के भीतर
एक औरत है
और उसके भीतर
एक और औरत।
यह बात
स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है
इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी
औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं
कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर
लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है
समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।
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मदमाता शरमाता अम्बर
रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर ।
भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर ।
रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता।
सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर।