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मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें,
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।
चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।
कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।
मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।
कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।
स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।
कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित,
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती,
दुर्गा, काली, चंडी,
सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी,
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।
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नेह की पौध बीजिए
घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।
इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।
कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,
नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।
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डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
डर ज़िन्दगी से नहीं लगता
ज़िन्दगी जीने के
तरीके से लगता है।
एहसास मिटने लगे हैं
रिश्ते बिखरने लगे हैं
कौन अपना,
कौन पराया,
समझ से बाहर होने लगे हैं।
सड़कों पर खून बहता है
हाथ फिर भी साफ़ दिखने लगे हैं।
कहने को हम हाथ जोड़ते हैं,
पर कहां खुलते हैं,
कहां बांटते हैं,
कहां हाथ साफ़ करते हैं,
अनजाने से रहने लगे हैं।
क्या खोया , क्या पाया
इसी असमंजस में रहने लगे हैं।
पत्थरों को चिनने के लिए
अरबों-खरबों लुटाने के लिए
तैयार बैठे हैं,
पर भीतर जाने से कतराने लगे हैं।
पिछले रास्ते से प्रवेश कर,
ईश्वर में आस्था जताने लगे हैं।
प्रसाद की भी
कीमत लगती है आजकल
हम तो, यूं ही
आपका स्वाद
कड़वा करने में लगे हैं।
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ज़िन्दगी के रास्ते
यह निर्विवाद सत्य है
कि ज़िन्दगी
बने-बनाये रास्तों पर नहीं चलती।
कितनी कोशिश करते हैं हम
जीवन में
सीधी राहों पर चलने की।
निश्चित करते हैं कुछ लक्ष्य
निर्धारित करते हैं राहें
पर परख नहीं पाते
जीवन की चालें
और अपनी चाहतें।
ज़िन्दगी
एक बहकी हुई
नदी-सी लगती है,
तटों से टकराती
कभी झूमती, कभी गाती।
राहें बदलती
नवीन राहें बनाती।
किन्तु
बार-बार बदलती हैं राहें
बार-बार बदलती हैं चाहतें
बस,
शायद यही अटूट सत्य है।
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सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी
सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी
सूरज भागा, चंदा चमका
तारे बिखरे
कुछ चमके, कुछ निखरे
रंगों की डोली पलटी
हल्के-हल्के रंग बदले
फूलों ने मुख मोड़ लिए
पल्लव देखो सिमट गये
चिड़िया ने कूक भरी
तितली-भंवरे कहाँ गये
कीट-पतंगे बिखर गये
ओस की बूँदें टहल रहीं
देखो तो कैसे बहक रहीं
रंगों से देखो खेल रहीं
अभी यहीं थीं
कहाँ गईं, कहाँ गईं
ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।
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एक उपहार है ज़िन्दगी
हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी
हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी
कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी
हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी
कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी
घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी
कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी
भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी
झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी
कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी
और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी
तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी
यूं ही तो नहीं आकाश दिला देती है जिन्दगी
पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी
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पाप की हो या पुण्य की गठरी
पाप की हो या
पुण्य की गठरी
तो भारी होती है।
कौन करेगा निर्णय
पाप क्या
या पुण्य क्या!
तू मेरे गिनता
मैं तेरे गिनती,
कल के डर से
काल के डर से
सहम-सहम
चलते जीवन में।
इहलोक यहीं
परलोक यहीं
सब लोक यहीं
यहीं फ़ैसला कर लें।
कल किसने देखा
चल आज यहीं
सब भूल-भुलाकर
जीवन
जी भर जी लें।
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मान-सम्मान की आस में
मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”
स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन
नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता
छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन
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किसान क्यों है परेशान
कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।
पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।
कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,
खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।
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जीवन में सदैव अमावस नहीं होता
जैसे इन्द्रधनुषी रंगों में स्याह रंग नहीं होता
वैसे जीवन में सदैव अमावस ही नहीं होता
रिमझिम बूंदों को जब गुनगुनी धूप निखारती है
आशा के पुष्पों पर कभी तुषारापात नहीं होता।
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मन मिलते हैं
जब हाथों से हाथ जुड़ते हैं
जीवन में राग घुलते हैं
रिश्तों की डोर बंधती है
मन से फिर मन मिलते हैं