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दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
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कांटों की बुआई में
तीर की जगह तुक्का चलाना आ गया।
झूठ को सच, सच को झूठ बनाना आ गया।
कांटों की बुआई में हाथ बहुत साफ़ है,
किसी की चुभन देख मुस्कुराना आ गया।
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रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं
जीवन के सिखाये गये पाठ
बार बार दोहराती हूं।
रोज़ याद करती हूं, पर भूल जाती हूं ।
पुस्तकें पढ़कर नहीं चलता जीवन,
यह जानकर भी
वही पाठ बार-बार दोहराती हूं ।
सब कहते हैं, पढ़ ले, पढ़ ले,
जीवन में कुछ आगे बढ़ ले ।
पर मेरी बात
कोई क्यों नहीं समझ पाता।
कुछ पन्ने, कुछ हिसाब-बेहिसाब
कभी समझ ही नहीं पाती हूं,
लिख-लिखकर दोहराती हूं ।
कभी स्याही चुक जाती है ,
कभी कलम छूट जाती है,
अपने को बार-बार समझाती हूं ।
फिर भी,
रोज़ याद करती हूं ,भूल जाती हूं ।
ज़्यादा गहराईयों से
डर लगता है मुझे
इसलिए कितने ही पन्ने
अधपढ़े छोड़ आगे बढ़ जाती हूं ।
कोई तो समझे मेरी बात ।
कहते हैं,
तकिये के नीचे रख दो किताब,
जिसे याद करना हो बेहिसाब,
पर ऐसा करके भी देख लिया मैंने
सपनों में भी पढ़कर देख लिया मैंने,
बस, इसी तरह जीती चली जाती हूं ।
.
रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं ।
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गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
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सिंदूरी शाम
अक्सर मुझे लगता है
दिन भर
आकाश में घूमता-घूमता
सूरज भी
थक जाता है
और संध्या होते ही
बेरंग-सा होने लगता है
हमारी ही तरह।
ठिठके-से कदम
धीमी चाल
अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।
जैसे हम
थके-से
द्वार खटखटाते हैं
और परिवार को देखकर
हमारे क्लांत चेहरे पर
मुस्कान छा जाती है
दिनभर की थकान
उड़नछू हो जाती है
कुछ वैसे ही सूरज
जब बढ़ता है
अस्ताचल की ओर
गगन
चाँद-तारों संग
बिखेरने लगता है
इतने रंग
कि सांझ सराबोर हो जाती है
रंगों से।
और
बेरंग-सा सूरज
अनायास झूम उठता है
उस सिंदूरी शाम में
जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से
भर जाता है।
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निर्माण हो या हो अवसान
उपवन में रूप ले रही
कलियों ने पहले से झूम रहे
पुष्पों की आभा देखी
और अपना सुन्दर भविष्य
देखकर मुस्कुरा दीं।
पुष्पों ने कलियों की
मुस्कान से आलोकित
उपवन को निहारा
और अपना पूर्व स्वरूप भानकर
मुदित हुए।
फिर धरा पर झरी पत्तियों में
अपने भविष्य की
आहट का अनुभव किया।
धरा से बने थे
धरा में जा मिलेंगे
सोच, खिलखिला दिये।
फिर स्वरूप लेंगे
मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,
फिर खिलखिलाएंगे।
निर्माण हो या हो अवसान की आहट
होना है तो होना है
रोना क्या खोना क्या
होना है तो होना है।
चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।
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जल-विभाग इन्द्र जी के पास
मेरी जानकारी के अनुसार
जल-विभाग
इन्द्र जी के पास है।
कभी प्रयास किया था उन्होंने
गोवर्धन को डुबाने का
किन्तु विफ़ल रहे थे।
उस युग में
कृष्ण जी थे
जिन्होंने
अपनी कनिष्का पर
गोवर्धन धारण कर
बचा लिया था
पूरे समाज को।
.
किन्तु इन्द्र जी,
इस काल में कोई नहीं
जो अपनी अंगुली दे
समाज हित में।
.
इसलिए
आप ही से
निवेदन है,
अपने विभाग को
ज़रा व्यवस्थित कीजिए
काल और स्थान देखकर
जल की आपूर्ति कीजिए,
घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए
कहीं अति-वृष्टि
कहीं शुष्कता को
संयमित कीजिए
न हो कहीं कमी
न ज़्यादती,
नदियाँ सदानीरा
और धरा शस्यश्यामला बने,
अपने विभाग को
ज़रा व्यवस्थित कीजिए।
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कितने सबक देती है ज़िन्दगी
भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।
खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।
धूल-मिट्टी में आनन्द देती
मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।
तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,
धक्का-मुक्की, उठन-उठाई
नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।
आगे-पीछे देखकर चलना
बायें-दायें, सीधे-सीधे
या पलट-पलटकर,
सम्हल-सम्हलकर।
तब भी न जाने
कितने सबक देती है ज़िन्दगी।
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अपनी राहों पर अपने हक से चला मैं
रोशनी से
बात करने चला मैं।
सुबह-सवेरे
अपने से चला मैं।
उगते सूरज को
नमन करने चला मैं।
न बदला सूरज
न बदली उसकी आब,
तो अपनी राहों पर
यूं ही बढ़ता चला मैं।
उम्र यूं ही बीती जाती
सोचते-सोचते
आगे बढ़ता चला मैं।
धूल-धूसरित राहें
न रोकें मुझे
हाथ में लाठी लिए
मनमस्त चला मैं।
साथ नहीं मांगता
हाथ नहीं मांगता
अपने दम पर
आज भी चला मैं।
वृक्ष भी बढ़ रहे,
शाखाएं झुक रहीं
छांव बांटतीं
मेरा साथ दे रहीं।
तभी तो
अपनी राहों पर
अपने हक से चला मैं।
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मेरा नाम श्रमिक है
कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
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अपना-अपना सूरज
द्वार पर पैर रखते ही निशि को माँ की नाराज़गी का सामना करना पड़ा, ‘‘अगर कल से इस तरह घर लौटने में आधी रात की न तो आगे से घर से लौटना बन्द कर दूँगी। रोज़ समझाती हूँ पर तेरे कान में बात नहीं पड़ती लड़की।’’
निशि डरते-डरते माँ के निकट आ खड़ी हुई, ‘‘लेकिन मम्मी मैं तो आपसे पूछकर ही गई थी यहीं पड़ोस में नीरा के घर। दूर थोड़े ही जाती हूँ और अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ। देखो धूप........।’’
माँ ने झल्लाकर बात काटी, ‘‘हाँ, अंधेरा तो तब होगा जब किसी दिन नाक कटवा लायेगी हमारी।’’
‘‘इसकी ज़बान ज़्यादा चलने लगी है मम्मी’’, अन्दर से नितिन की आवाज़ आई।
‘‘तू कौन होता है बीच में बोलने वाला?’’निशि को छोटे भाई का हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगा।
नितिन उठकर बाहर आया और निशि की चोटी खींचता हुआ बोला, ‘‘मम्मी, इसे समझाओ मैं कौन होता हूँ बोलने वाला।’’
बाल खिंचने से हुई निशि की पीड़ा माँ के तीखे स्वर में दबकर रह गई, ‘‘क्यों भाई नहीं है तेरा। यह तेरी चिन्ता नहीं करेगा तो कौन करेगा? कल को दुनियादारी तो इसे ही निभानी है। कौन सम्हालेगा अगर कोई ऊँच-नीच हो गई तो?’’
माँ की शह पर नितिन का यह रोब निशि के असहनीय था, किन्तु इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, माँ नितिन की ओर उन्मुख हुई, ‘‘और तू यहाँ इस समय घर में बैठा क्या कर रहा ह? सूरज अभी ढला नहीं कि तू घर में मुँह छुपाकर बैठ जाता है। जा, बाहर जाकर दोस्तों के साथ खेल। शाम को ज़रा घूमा-फिराकर सेहत बनती है।’’
और निशि! अवाक् खड़ी थी। पूछना चाहती थी कि जब उसकी आधी रात हो जाती है, तब भाई का सूरज भी नहीं ढलता। ऐसा कैसे सम्भव है? क्या सबका सूरज अलग-अलग होता है? उसका और नितिन का सूरज एक साथ क्यों नहीं डूबता?
क्यों? क्यों?
वह घूम रही है, पूछ रही है, चिल्ला रही है, ‘‘बताओ, मेरा सूरज अलग क्यों डूबता है? क्यों डूबता है मेरा सूरज इतनी जल्दी? क्यों डूब जाता है मेरा सूरज धूप रहते?
क्यों? क्यों?
पर कोई उत्तर नहीं देता। सब सुनते हैं और हँसते हैं। धरती-आकाश, पेड़-पौधे, चाँद-तारे, फूल-पत्थर, सब हँसते हैं,
बौरा गई है लड़की, इतना भी नहीं जानती कि लड़के और लड़कियों का सूरज अलग-अलग होता है।
पर निशि सच में ही बौरा गई है। हाथ फैलाए सूरज की ओर दौड़ रही है और कहती है मैं अपना सूरज डूबने नहीं दूँगी।