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नज़र दूरियां नापती हैं
हिमशिखर के पार
कहां तक है संसार
राहें
सुगम हों या हों दुर्गम।
जगत माया है
मिथ्या है
पता नहीं,
पर
जब
उसका डमरू बजता है
तब, सब
उस जगत के पार ही दिखता है।
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जीवन का आनन्द ले
प्रकृति ने पुकारा मुझे,
खुली हवाओं ने
दिया सहारा मुझे,
चल बाहर आ
दिल बहला
न डर
जीवन का आनन्द ले
सुख के कुछ पल जी ले।
वृक्षों की लहराती लताएँ
मन बहलाती हैं
हरीतिमा मन के भावों को
सहला-सहला जाती है।
मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
एक मीठी खुमारी के साथ
मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
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असमंजस में रहते हैं हम
कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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अभिलाषाओं के कसीदे
आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे
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नदिया से मैंने पूछा
नदिया से मैंने पूछा
कल-कल कर क्यों बहती हो।
बहते-बहते
कभी सिमट-सिमट कर
कभी बिखर-बिखर जाती हो।
कभी मधुर संगीत छेड़ती
कभी विकराल रूप दिखाती हो।
कभी सूखी,
कभी लहर-लहर लहराती हो।
नदिया बोली,
मुझसे क्या पूछ रहे
तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।
पर मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
इसीलिए,
कल-कल की बातें कहती हूं।
समझ सको तो, सम्हल सको तो
रूक कर, ठहर-ठहर कर
सोचो तुम।
बहते-बहते, सिमट-सिमट कर
अक्सर क्यों बिखर-बिखर जाती हूं ।
मधुर संगीत छेड़ती
क्यों विकराल रूप दिखाती हूं।
जब सूखी,
फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।
मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
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मन की बातें न बताएं
पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं
जो दुनिया तो जाने थी पर मन था छुपाए
पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें
न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं
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मन हर्षाए बादल
बिन मौसम आज आये बादल
कड़क-कड़क यूँ डराये बादल
पानी बरस-बरस मन भिगाये
शाम सुहानी, मन हर्षाए बादल
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उड़ती चिड़िया के पर गिन लिया करते हैं
सुना है कुछ लोग
उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
कौन हैं वे लोग
जो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
क्या वे
कोई और काम भी करते हैं,
अथवा बस,
उड़ती चिड़िया के
पर ही गिनते रहते हैं।
कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?
कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?
जिनके पर गिने जा रहे हैं ?
पहले पकड़ते हैं,
पिंजरे में
पालन-पोषण करते हैं।
लाड़-प्यार जताते हैं।
कुछ पर काट देते हैं,
कि चिड़िया उड़ न जाये।
फिर एक दिन उकता जाते हैं,
और छोड़ देते हैं उसे
आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।
फिर अपना अनुभव बखानते हैं,
हम तो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लेते हैं।
सच में ही
बहुत गुणी हैं ये लोग।
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कच्चे धागों से हैं जीवन के रिश्ते
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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कहते हैं जब जागो तभी सवेरा
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है
आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है
रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन
सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता