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नज़र दूरियां नापती हैं
हिमशिखर के पार
कहां तक है संसार
राहें
सुगम हों या हों दुर्गम।
जगत माया है
मिथ्या है
पता नहीं,
पर
जब
उसका डमरू बजता है
तब, सब
उस जगत के पार ही दिखता है।
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रेखाएं अनुभव की अनुभूत सत्य की
रेखाएं
कलम की, तूलिका की,
रचती हैं कुछ भाव, कोई चित्र।
किन्तु
रेखाएं अनुभव की, अनुभूत सत्य की,
दिखती तो दरारों-सी हैं
लेकिन झांकती है
इनके भीतर से एक रोशनी
देती एक गहन जीवन-संदेश।
जिसे पाने के लिए, समझने के लिए
समर्पित करना पड़ता है
एक पूरा जीवन
या एक पूरा युग।
ऐसे हाथ जब आशीष में उठते हैं
तब भी
और जब अभिवादन में जुड़ते हैं
तब भी
नतमस्तक होता है मन।
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मेरा आधुनिक विकासशील भारत
यह मेरा आधुनिक विकासशील भारत है
जो सड़क पर रोटियां बना रहा है।
यह मेरे देश की
पचास प्रतिशत आबादी है
जो सड़क पर अपनी संतान को
जन्म देती है
उनका लालन-पालन करती है
और इस प्राचीन
सभ्य, सुसंस्कृत देश के लिए
नागरिक तैयार करती है।
यह मेरे देश की वह भावी पीढ़ी है
जिसके लिए
डिजिटल इंडिया की
संकल्पना की जा रही है।
यह मेरे देश के वे नागरिक हैं
जिनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास
के विज्ञापनों पर
अरबों-खरबों रूपये लगाये जा रहे हैं,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
अभियान चला रहे हैं।
इन सब की सुरक्षा
और विकास के लिए
धरा से गगन तक के
मार्ग बनाये जा रहे हैं।
क्या यह भारत
चांद और उपग्रहों से नहीं दिखाई देता ?
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मेहनत की ज़िन्दगी है
प्रेम का प्रतीक है
हाथ में मेरे
न देख मेरा चेहरा
न पूछ मेरी आस।
भीख नहीं मांगती
दया नहीं मांगती
मेहनत की ज़िन्दगी है
छोटी है तो क्या
मुझ पर न दया दिखा।
मुझसे ज्यादा जानते हो तुम
जीवन के भाव को।
न कर बात यूं ही
इधर-उधर की
लेना हो तो ले
मंदिर में चढ़ा
किसी के बालों में लगा
कल को मसलकर
सड़कों पर गिरा
मुझको क्या
लेना हो तो ले
नहीं तो आगे बढ़
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कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कि जब तक
मेरे साथ दो बैल
और ग़रीबी की रेखा न हो
मुझे कोई पहचानता ही नहीं।
जब तक
मैं असहाय, शोषित न दिखूँ
मुझे कोई किसान
मानता ही नहीं।
मेरी
इस हरी-भरी दुनियाँ में
एक सुख भरा संसार भी है
लहलहाती कृषि
और भरा-पूरा
परिवार भी है।
गुरूर नहीं है मुझे
पर गर्व करता हूँ
कि अन्न उपजाता हूँ
ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,
आशाओं में जीता हूँ
आशाएँ बांटता हूँ।
दुख-सुख तो
आने-जाने हैं।
अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल
अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,
तो कृषि की
असामयिक आपदा के लिए
हम सदैव तैयार रहते हैं,
हमारे लिए
दान-दया की बात कौन करता है
हम नहीं जानते।
अपने बल पर जीते हैं
श्रम ही हमारा धर्म है
बस इतना ही हम मानते।
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नियति
जन्म होता है
मरने के लिए।
लड़कियां भी
जन्म लेती हैं
मरने के लिए।
अर्थात्
जन्म लेकर
मरना है
हर लड़की को।
फिर, जब
मरना तय है
तो क्या फ़र्क पड़ता है
कि वह
किस तरह मरे।
कल की मरती
आज मरे।
कल का क्लेश
आज कटे।
जलकर मरे
या डूबकर मरे।
या पैदा होने से
पहले ही मरे।
जब जन्म होता ही
मरने के लिए है
तो जल्दी जल्दी मरे।
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कौन जाने सूरज उदित हुआ या अस्त
उस दिन जैसे ही सूरज डूबा,
अंधेरा होते ही
सामने के सारे पहाड़ समतल हो गये।
वैसे भी हर अंधेरा
समतल हुआ करता है,
और प्रकाश सतरंगा।
अंधेरा सुविधा हुआ करता है,
औेर प्रकाश सच्चाई।
-
तुम चाहो तो अपने लिए
कोई भी रंग चुन लो।
हर रंग एक आकाश हुआ करता है,
एक अवकाश हुआ करता है।
मैं तो
बस इतना जानती हूं
कि सफ़ेद रंग
सात रंगों का मिश्रण।
यह एकता, शांति
और समझौते का प्रतीक,
-आधार सात रंग।
अतः बस इतना ध्यान रखना
कि सफे़द रंग तक पहुंचने के लिए
तुम्हें सभी रंगों से गुज़रना होगा।
-
पता नहीं सबने कैसे मान लिया
कि सूरज उगा करता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को डूबते ही देखा।
हर ओर पश्चिम ही पश्चिम है,
और हर कदम
अंधेरे की ओर बढ़ता कदम।
-
मैं अक्सर चाहती हूं
कि कभी दिन रहते सूरज डूब जाये,
और दुनिया के लिए
खतरा उठ खड़ा हो।
-
सच कहना
क्या कभी तुमने सूरज उगता देखा है?
-
अगर तुमने कभी
सूरज को
उपर की ओर
आकाश की ओर बढ़ता देख लिया,
आग, तपिश और रोशनी थी उसमें
बस !
इतने से ही तुमने मान लिया
कि सूरजा उग आया।
-
हर चढ़ता सूरज
मंजिल नहीं हुआ करता।
पता नहीं कब दिन ढल जाये।
और कभी-कभी तो सूरज चढ़ता ही नहीं,
और दिन ढल जाता है।
मैंने तो जब भी देखा
सूरज को ढलते ही देखा।
-
डूबते सूरज की पहचान,
अंधेरे से रोशनी की ओर,
अतल से उपर की ओर।
इसीलिए
मैंने तो जब भी देखा,
सूरज को डूबते ही देखा।
-
हर डूबता दिन,
उगते तारे,
एक नये आने वाले दिन का,
एक नयी जिंदगी का,
संदेश दे जाते हैं।
जाने वाले क्षण
आने वाले क्षणों के पोषक,
बता जाते हैं कि शाम केवल डूबती नहीं,
हर डूबने के पीछे
नया उदय ज़रूरी है।
हर शाम के पीछे
एक सुबह है,
और चांद के पीछे सूरज -
सूरज को तो डूबना ही है,
पर एक उदय का सपना लेकर ।
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कहते हैं कोई फ़ागुन आया
फ़ागुन आया, फ़ागुन आया, सुनते हैं, इधर कोई फ़ागुन आया
रंग-गुलाल, उमंग-रसरंग, ठिठोली-होली, सुनते हैं फ़ागुन लाया
उपवन खिले, मन-मनमीत मिले, ढोल बजे, कहीं साज सजे
आकुल-व्याकुल मन को करता, कहते हैं, कोई फ़ागुन आया।
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कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।
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नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
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क्यों करें किसी से गिले
कांटों के संग फूल खिले
अनजाने कुछ मीत मिले
सारी बातें आनी जानी हैं
क्यों करें किसी से गिले