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चूड़ियां उतार दी मैंने, सब कहते हैं पहनने वाली नारी अबला होती है
यह भी कि प्रदर्शन-सजावट के पीछे भागती नारी कहां सबला होती है
न जाने कितनी कहावतें, मुहावरे बुन दिये इस समाज ने हमारे लिये
सहज साज-श्रृंगार भी यहां न जाने क्यों बस उपहास की बात होती है
चूड़ी की हर खनक में अलग भाव होते हैं,कभी आंसू, कभी हास होते हैं
कभी न समझ सका कोई, यहां तो नारी की हर बात उपहास होती है
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जागरण का आंखों देखा हाल
चलिए,
आज आपको
मेरे परिचित के घर हुए
जागरण का
आंखों देखा हाल सुनाती हूं।
मैं मूढ़
मुझे देर से समझ आया
कि वह जागरण ही था।
भारी भीड़ थी,
कनातें सजी थीं,
दरियां बिछी थीं।
लोगों की आवाजाही लगी थी।
चाय, ठण्डाई का
दौर चल रहा था।
पीछे भोजन का पंडाल
सज रहा था।
लोग आनन्द ले रहे थे
लेकिन मां की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इतने में ही एक ट्रक में
चार लोग आये
बक्सों में कुछ मूर्तियां लाये।
पहले कुछ टूटे-फ़ूटे
फ़ट्टे सजाये।
फिर मूर्तियों को जोड़ा।
आभूषण पहनाये, तिलक लगाये,
भक्त भाव-विभोर
मां के चरणों में नत नज़र आये।
जय-जयकारों से पण्डाल गूंज उठा।
फ़िल्मी धुनों के भक्ति गीतों पर
लोग झूमने लगे।
गायकों की टोली
गीत गा रही थी
भक्तगण झूम-झूमकर
भोजन का आनन्द उठा रहे थे।
भोजन सिमटने लगा
भीड़ छंटने लगी।
भक्त तन्द्रा में जाने लगे।
गायकों का स्वर डूबने लगा।
प्रात होने लगी
कनात लेने वाले
दरियां उठाने वाले
और मूर्तियां लाने वालों की
भीड़ रह गई।
पण्डित जी ने भोग लगाया।
मैंने भी प्रसाद खाया।
ट्रक चले गये
और जगराता सम्पन्न हुआ।
जय मां ।
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जीवन की भाग-दौड़ में
जीवन की भाग-दौड़ में कौन हमराही, हमसफ़र कौन
कौन मिला, कौन छूट गया, हमें यहाँ बतलाएगा कौन
आपा-धापी, इसकी-उसकी, उठा-पटक लगी हुई है
कौन है अपना, कौन पराया, ये हमें समझायेगा कौन
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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आज हम जीते हैं अपने हेतु बस अपने हेतु
मंदिरों की नींव में
निहित होती हैं हमारी आस्थाएं।
द्वार पर विद्यमान होती हैं
हमारी प्रार्थनाएं।
प्रांगण में विराजित होती हैं
हमारी कामनाएं।
और गुम्बदों पर लहराती हैं
हमारी सदाएं।
हम पत्थरों को तराशते हैं।
मूर्तियां गढ़ते हैं।
रंग−रूप देते हैं।
सौन्दर्य निरूपित करते हैं।
नेह, अपनत्व, विश्वास और श्रद्धा से
श्रृंगार करते हैं उनका।
और उन्हें ईश्वरीय प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
करते –करते कर लिए हमने
चौरासी करोड़ देवी –देवता।
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समय –प्रवाह में मूत्तियां खण्डित होने लगती हैं ।
और खण्डित मू्र्तियों की पूजा का विधान नहीं है।
खण्डित मू्र्तियों को तिरोहित कर दिया जाता है
कहीं जल –प्रवाह में।
और इन खण्डित होती मू्र्तियों के साथ ही
तिरोहित होने लगती हैं
हमारी आस्थाएं, विश्वास, अपनत्व और नेह।
श्रद्धा और विश्वास अंधविश्वास हो गये।
आस्थाएं विस्थापित होने लगीं
प्रार्थनाएं बिखरने लगीं
सदाएं कपट हो गईं
और मन –मन्दिर ध्वस्त हो गये।
उलझने लगे हम, सहमने लगे हम,
डरने लगे हम, बिखरने लगे हम,
अपनी ही कृतियों से, अपनी ही धर्मिता से
बंटने–बांटने लगे हम।
और आज हम जीते हैं अपने हेतु
बस अपने हेतु।
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
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मन चंचल करती तन्हाईयां
जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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हंस-हंसकर बीते जीवन क्या घट जायेगा
यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है
हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्या घट जायेगा
गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है
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एक डर में जीते हैं हम
उन्नति के शिखर पर बैठकर भी
अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,
पता नहीं लगता
क्या खोया
और क्या, कैसे पाया।
एक डर में जीते हैं,
न जाने कहां
पांव फिसल जायें
और
आरम्भ करना पड़े
एक नया सफ़र।
अपनी ही सफ़लताओं का
आनन्द नहीं लेते हम।
एक डर में जीते हैं हम।
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बड़े-बड़े कर रहे आजकल
बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की
शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी
इनकी भाषा, इनके शब्दों से हमें घिन आती है
बात करें महिलाओं की और करते आंख सिकाई जी
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चल न मन,पतंग बन
आकाश छूने की तमन्ना है
पतंग में।
एक पतली सी डोर के सहारे
यह जानते हुए भी
कि कट सकती है,
फट सकती है,
लूट ली जा सकती है
तारों में उलझकर रह सकती है
टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।
किन्तु उन्मुक्त गगन
जीवन का उत्साह
खुली उड़ान,
उत्सव का आनन्द
उल्लास और उमंग।
पवन की गति,
कुछ हाथों की यति
रंगों की मति
राहें नहीं रोकते।
* * * *
चल न मन,
पतंग बन।