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चिड़िया रानी क्या-क्या खाती
राशन-पानी कहाँ से लाती
मुझको तो कुछ न बतलाती
थाली-कटोरी कहाँ से पाती
चोंच में तिनका लेकर घूमे
कहाँ बनाया इसने घर
इसके घर में कितने मैंम्बर
इधर-उधर फुदकती रहती
डाली-डाली घूम रही
फूल-फूल को छू रही
मैं इसके पीछे भागूं
कभी नीचे आती
कभी ऊपर जाती
मेरे हाथ कभी न आती।
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हम नहीं लकीर के फ़कीर
हमें बचपन से ही
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
कुछ बातें,
उन पर
सच-झूठ के मायने नहीं होते।
मायने होते हैं
तो बस इतने
कि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं
तो गलत तो हो ही नहीं सकता।
उनका अनुभूत सत्य रहा होगा
तभी तो सदियों से
कुछ मान्यताएं हैं हमारे जीवन में,
जिनका विरोध करना
संस्कृति-संस्कारों का अपमान
परम्पराओं का उपहास,
और बड़े-बुज़ुर्गों का अपमान।
आज की शिक्षित पीढ़ी
नकारती है इन परम्पराओं-आस्थाओं को।
कहती है
हम नहीं लकीर के फ़कीर।
किन्तु
नया कम्प्यूटर लेने पर
उस पर पहले तिलक करती है।
नये आफ़िस के बाहर
नींबू-मिर्च लटकाती है,
नया काम शुरु करने से पहले
उन पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाती है
जो संस्कृत-पोथी पढ़ना भूले बैठे हैं,
फिर नारियल फोड़ती है
कार के सामने।
पूजा-पाठ अनिवार्य है,
नये घर में हवन तो करना ही होगा
चाहे सामग्री मिले या न मिले।
बिल्ली रास्ता काट जाये
तो राह बदल लेते हैं
और छींक आने पर
लौट जाते हैं
चाहे गाड़ी छूटे या नौकरी।
हाथों में ग्रहों की चार अंगूठियां,
गले में चांदी
और कलाई में काला-लाल धागा
नज़र न लगे किसी की।
लेकिन हम नहीं लकीर के फ़कीर।
ये तो हमारी परम्पराएं, संस्कृति है
और मान रखना है हमें इन सबका।
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शिक्षा की यह राह देखकर
शिक्षा की कौन-सी राह है यह
मैं समझ नहीं पाई।
आजकल
बेटियां-बेटियां
सुनने में बहुत आ रहा है।
उनको ऐसी नई राहों पर
चलना सिखलाया जा रहा है।
सामान ढोने वाली
कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है
और शायद
विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।
बच्चियां हैं ये अभी
नहीं जानती कि
राहें बड़ी लम्बी, गहरी
और दलदल भरी होती हैं।
न पैरों के नीचे धरा है
न सिर पर छाया,
बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर
अधर में फ़ंसाया जा रहा है।
अवसर मिलते ही
डराने लगते हैं हम
धमकाने लगते हैं हम।
और कभी उनका
अति गुणगान कर
भटकाने लगते हैं हम।
ये राहें दिखाकर
उनके हौंसले
तोड़ने पर लगे हैं।
नौटंकियां करने में कुशल हैं।
चांद पर पहुंच गये,
आधुनिकता के चरम पर बैठे,
लेकिन
शिक्षा की यह राह देखकर
चुल्लू भर पानी में
डूब मरने को मन करता है।
किन्तु किससे कहें,
यहां तो सभी
गुणगान करने में जुटे हैं।
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दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
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महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष
1975 में लिखी गई रचना
************-*********
तुम हर युग में बनो रहो राम
पर मैं नहीं बनूंगी सीता।
तुम बने रहो अंधे धृतराष्ट्र्
पर मैं बनूंगी गांधारी।
तुम बजाओ मुरली
पर मैं नहीं बनूंगी राधा।
उर्मिला हूं अगर
तो नहीं बैठी रहूंगी
चौदह वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा में।
मैं ब्याही गई थी तुम संग
या तुम ब्याहे गये थे राम संग।
राम संग गई थी सीता
किसे छोड़ गये थे तुम मेरे संग।
द्रौपदी हूं अगर
तो पांडवों की चालाकी जान चुकी हूं।
माता की आज्ञा के इतने ही थे अनुसार
तो क्यों खाने पहुंचे थे
दुर्योधन से जुए में हार।
द्रौपदी अब बनेगी नारी
नहीं चाहिए उसे तुम्हारे मणि हार।
नहीं रह गई है वह केवल
तुम्हारी इच्छा पूर्त्तियों का आधार।
कर लेगी वह अपनी रक्षा
स्वयं ही जयद्रथ से
हे युधिष्ठिर !
नहीं चाहिए उसे तुम्हारी सम्बल।
तुम स्वयं तो बच लो पहले कर्ण से।
तुम्हारी सोलह हज़ार रानियों में
हे कृष्ण ! नहीं चाहिए स्थान मुझे।
रह लूंगी कुंवारी ही
नहीं चाहिए तुम्हारा एहसान मुझे।
तुम्हारे लिए हे राम !
मैंने छोड़ी सारी सुख सुविधा, राज पाट
और तुमने ! तुमने !
एक धोबी के कहने से छोड़ दिया मुझे।
तो स्वयं ही सिद्ध किया
कि अग्नि-परीक्षा
मेरे अपमान का एक अद्भुत ढंग था।
और बहाना ! क्या सुन्दर था।
प्रजा का सुख था।
मैंने छोड़ दिया था तुम्हारे लिए सुख साज।
तो क्या तुम नहीं छोड़ सकते थे
मेरे लिए वही सुख राज।
और अब चाहते हो मैं गांधारी बनूं
फिरूं तुम्हारे पीछे पीछे आंखों पर पट्टी बांधे।
नहीं ! उस बंधी पट्टी को खोल
अपनी दृष्टि अपने पर ही डाल
बनूंगी स्वयं ही वज्र।
पर जानती हूं यह भी,
कि कृष्ण और दुर्योधन
अभी भी तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं।
लेकिन फिर भी हे पुरूष !
हर युग में तुम आओगे
मेरे ही आगे हाथ पसारे
हे मात: ! मुझे बना दो वज्र समान
जिससे, हर युग में मैं
कभी राम तो कभी कृष्ण
कभी कौरव तो कभी पाण्डव
तो कभी धृतराष्ट्र् बनकर
तुम्हें ही चोट पर चोट दे सकूं।
तुम्हारे ही अस्त्र से तुम्हें ही दबाउं
मुक्ति के गीत सुनाकर तुम्हें ही बन्दी बनाउं।
पर आज !
आज भी क्या है मेरे पास ?
सीता न बनूं, न बनूं गांधारी
राधा न बनूं, न बनूं द्रौपदी
या गांधारी भी न बनूं
तो क्या बन कर रहूं
बीसवीं सदी की नारी?
तो क्या यहां स्थितियां कुछ नेक हैं ?
हां हैं !
तुम्हारे हथकण्डे नये, बढ़िया, अनेक हैं।
या यूं कहूं फारेन मेक हैं।
यहां जकड़न और भी गहरी है।
नारी अभिशप्त हर जगह बेचारी है।
उसे देवी के आसन पर बिठाओ
मुक्ति के गीत सुनाओ, स्वपन दिखाओ
हर जगह तुम्हारी जीत है।
हर जगह तुम्हारी जीत है।
आज तो तुमने नया हथकण्डा अपनाया है
सारे संसार में
महिला अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष का नारा गुंजाया है।
नारी को स्वाधीन बनाने का,
अधिकार दिलाने का स्वांग रचाया है।
तुम देवी हो, तुममें प्रतिभा है,
बुद्धिमती हो, तुम सब कुछ कर सकती हो।
सफल गृहिणी हो।
यानी कि आया भी हो
मेहरी भी हो अवैतनिक
और रसोईये का काम तो
भली भांति जानती ही हो।
और दफ्तर !
वहां तो आज नारी ही प्रधान है।
बिल्कुल ठीक !
पहले पिसती थी एक पाट में
अब उसे पीसो चक्की के दो पाटों में।
घर के भीतर भी और घर के बाहर भी।
इस तरह नारी के शोषण की
व्यंग्य प्रहारों से उसे पीड़ित करने की
एक नई राह पाई है।
नारी ने एक बार फिर मार खाई है।
हर युग में यही होता आया है
यह युग भी इसका अपवाद नहीं।
यत्र नारयस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता
भुलावे का मन्त्र यह,
नारी का जीवन था, नारी का जीवन है।
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आजकल मेरी कृतियां
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
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उसकी लेखी पढ़ी नहीं
कुछ पन्ने कोरे छोड़े थे कुछ रंगीन किये थे
कुछ पर मीठी यादें थीं कुछ गमगीन किये थे
कहते हैं लिखता है उपर वाला सब स्याह सफ़ेद
उसकी लेखी पढ़ी नहीं यही जुर्म संगीन किये थे
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जीने का एक नाम भी है साहित्य
मात्र धनार्जन, सम्मान कुछ पदकों का मोहताज नहीं है साहित्य
एक पूरी संस्कृति का संचालक, परिचायक, संवाहक है साहित्य
कुछ गीत, कविताएं, लिख लेने से कोई साहित्यकार नहीं बन जाता
ज़मीनी सच्चाईयों से जुड़कर जीने का एक नाम भी है साहित्य
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मान-सम्मान की आस में
मान-सम्मान की आस में सौ-सौ ग्रंथ लिखकर हम बन-बैठे “कविगण”
स्वयं मंच-सज्जा कर, सौ-सौ बार, करवा रहे इनका नित्य-प्रति विमोचन
नेता हो या अभिनेता, ज्ञानी हो या अज्ञानी कोई फ़र्क नहीं पड़ता
छायाचित्र छप जायें, समाचारों में नाम देखने को तरसें हमरे लोचन
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कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
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अकेली हूं मैं
मेरे पास
बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं
और हर उम्मीद
एक पूरा आदमी मांगती है
अपने लिए।
और मेरे पास तो
बहुत सी
अधूरी उम्मीदें हैं
पर अकेली हूं मैं
अपने को
कहां कहां बांटूं ?