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मन के भीतर मन है, मन के भीतर एक और मन
खोल खोल कर देखती हूं कितने ही तो हो गये मन
इस मन के किसी गह्वर में चाहतों का अम्बार दबा है
किसको रखूं, किसको छोड़ूं नहीं बतलाता है रे मन।
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गांधी जी ने ऐसा तो नहीं कहा था
गांधी जी को तो
गोली मार दी गई।
वे चले गये।
किन्तु उनके तीन बन्दर
यहीं रह गये
आंख, कान, मुंह बन्द किये।
आज उनकी संतति
पीढ़ी दर पीढ़ी
यूं ही आंख, कान, मुंह
बन्द किये बैठी है,
तीन हिस्सों में बंटी
गांधी जी ने
ऐसा तो नहीं कहा था।
किन्तु, यही है सत्य।
जो सुनते-देखते हैं वे बोलते नहीं,
जो बोलते-देखते हैं, वे सुनते नहीं
जो बोलते-सुनते हैं, वे देखते नहीं।
फिर कहते हैं
इस देश में कुछ बदल क्यों नहीं रहा !!!!!
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है हौंसला बुलन्द
उन राहों पर निकले हैं जिनका आदि न कोई अन्त
न आगे है कोई न पीछे है, दिखता दूर कहीं दिगन्त
देखने में रंगीनियां हैं, सफ़र है, समां सुहाना लगता है
टेढ़ी-मेढ़ी राहें हैं, पथ दुर्गम है, पर है हौंसला बुलन्द
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मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे
कल तक
एक घर मेरा था।
आज अचानक
सब बदल गया।
-
यह रूप-श्रृंगार
यह स्वर्ण-माल
मेरे
अगले जीवन का आधार
एक नया परिवार।
-
मात्र, एक पल लगा
मुझे एक से
दूसरे में बदलने में।
नाम-धाम सब सिमटने में।
-
नये सम्बन्ध, नये भाव
नये कर्तव्य और
पता नहीं कितने अधिकार।
सुना करती थी
बचपन से
पराया धन ! पराया धन !!
आज समझ पाई।
-
यह एक पल
न काम आती है
शिक्षा, न ज्ञान, न अभिमान
बस जीवन-परिवर्तन।
नहीं जानती
क्या मिला, क्या पाया, क्या खोया।
-
एक परिवार था मेरे पास
उसे मैं अपने जीवन के
पच्चीस वर्षों में न समझ पाई
किन्तु
एक नये परिवार को समझने के लिए
मुझे नहीं मिलेंगे
पच्चीस मिनट भी।
शायद पच्चीस पल में ही
मुझे सम्हालने होंगे
सारे नये सम्बन्ध
नये भाव, नया घर, नये लोग,
नई आशाएँ, आकांक्षाएँ।
-
मस्तिष्क एक डायरी बन गया।
-
पिछला क्या-क्या भूल जाना है मुझे
तिलांजलि देनी है
कौन-से सम्बन्धों को
और नया
क्या-क्या याद रखना है मुझे,
कितने कदम पीछे हटना है मुझे
कितने कदम आगे बढ़ना है मुझे।
ड्योढ़ी से अन्दर कदम रखते ही
ज्ञात हो जाना चाहिए सब मुझे।
रिश्तों के नये ताने-बाने को
संवारना है मुझे
सबकी भूख-प्यास का हिसाब
रखना है मुझे
अपने मन को किसी गह्वर में रखना है मुझे।
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आपको चाहिए क्या पारिजात वृक्ष
कृष्ण के स्वर्ग पहुंचने से पूर्व
इन्द्र आये थे मेरे पास
इस आग्रह के साथ
कि स्वीकार कर लूं मैं
पारिजात वृक्ष, पुष्पित –पल्लवित
जो मेरी सब कामनाएं पूर्ण करेगा।
स्वर्ग के लिए प्रस्थान करते समय
कृष्ण ने भी पूछा था मुझसे
किन्तु दोनों का ही
आग्रह अस्वीकार कर दिया था मैंने।
लौटा दिया था ससम्मान।
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
पारिजात आ जाएगा
तब जीवन रस ही चुक जायेगा।
सब भाव मिट जायेंगे,
शेष जीवन व्यर्थ हो जायेगा।
जब चाहत न होगी, आहत न होगी
न टूटेगा दिल, न कोई दिलासा देगा
न श्रम का स्वेद होगा
न मोतियों सी बूंदे दमकेंगी भाल पर
न सरस-विरस होगा
न लेन-देन की आशाएं-निराशाएं
न कोई उमंग-उल्लास
न कभी घटाएं तो न कभी बरसात
रूठना-मनाना, लेना-दिलाना
जब कभी तरसता है मन
तब आशाओं से सरस होता है मन
और जब पूरी होने लगती हैं आशाएं-आकांक्षाएं
तब
पारिजात पुष्पों के रस से भी अधिक
सरस-सरस होता है मन।
मगन-मगन होता है मन।
बस
बात बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
चाहत बड़ी नहीं, छोटी-सी है।
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हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
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यहां रंगीनियां सजती हैं
दीवारों पर
उकेरित ये कृतियां
भाव अनमोल।
नेह, अपनत्व, संस्कारों का
न लगा सके कोई मोल।
घर की रंगीनियां,
खुशियां यहां बरसती हैं,
सबके हित की कामना
यहां करती हैं।
प्रतिदिन यहां
रंगीनियां सजती हैं,
पर्वों पर हर बार
जीवन में नये रंग भरती हैं।
किन्तु
जब समय चलता है
तो जीवन में बहुत कुछ बदलता है।
नहीं कहते कि ठीक है या नहीं,
किन्तु
रह गई अब स्मृतियां अशेष,
नवरंगों से सजी दीवारों पर
अब ये कृतियां
किन्हीं मूल्यवान
बंधन में बंधी दीवारों पर लटकती हैं।
स्मृतियां यूं ही भटकती हैं।
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मुहब्बतों की कहानियां
मुझे इश्तहार सी लगती हैं
ये मुहब्बतों की कहानियां
कृत्रिम सजावट के साथ
बनठन कर खिंचे चित्र
आँखों तक खिंची
लम्बी मुस्कान
हाथों में यूँ हाथ
मानों
कहीं छोड़कर न भाग जाये।
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सुनो कृष्ण
सुनो कृष्ण !
मैं नहीं चाहती
किसी द्रौपदी को
तुम्हें पुकारना पड़े।
मैं नहीं चाहती
किसी युद्ध का तुम्हें
मध्यस्थ बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
किसी ऐसे युद्ध के
साक्षी बनो तुम
जहाँ तुम्हें
शस्त्र त्याग कर
दर्शक बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
तुम युद्ध भी न करो
किन्तु संचालक तुम ही बनो।
मैं नहीं चाहती
तुम ऐसे दूत बनो
जहाँ तुम
पहले से ही जानते हो
कि निर्णय नहीं होगा।
मैं नहीं चाहती
गीता का
वह उपदेश देना पड़े तुम्हें
जिसे इस जगत में
कोई नहीं समझता, सुनता,
पालन करता।
मैं नहीं चाहती
कि तुम इतना गहन ज्ञान दो
और यह दुनिया
फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल
गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,
राधा का सौन्दर्य
तुम्हारी वंशी, लालन-पालन
और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया
के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।
तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि
कुछ भी स्मरण न करें,
न करें स्मरण
युद्धों का उद्घोष
समझौतों का प्रयास
अपने-पराये की पहचान की समझ,
न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता
अपराधियों को दण्डित करने की नीति।
झुकने और समझौतों की
क्या सीमा-रेखा होती है
समझ ही न सकें।
मैं नहीं चाहती
कि तुम्हारे नाम के बहाने
उत्सवों-समारोहों में
इतना खो जायें
तुम पर इतना निर्भर हो जायें
कि तनिक-से कष्ट में
तुम्हें पुकारते रहें
कर्म न करें,
प्रयास न करें,
अभ्यास न करें।
तुम्हारे नाम का जाप करते-करते
तुम्हें ही भूल जायें,
बस यही नहीं चाहती मैं
हे कृष्ण !
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कहां समझ पाते हैं हम
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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कहलाने को ये सन्त हैं
साठ करोड़ का आसन, सात करोड़ के जूते,
भोली जनता मूरख बनती, बांधे इनके फीते,
कहलाने को ये सन्त हैं, करते हैं व्यापार,
हमें सिखायें सादगी आप जीवन का रस पीते।