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चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
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कैसा बिखराव है यह
मन घुटता है ,बेवजह।
कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।
उधेड़ नहीं पाती
पुरानी तरपाई।
स्वयं ही टूटकर
बिखरती है ।
समेटती लगती हूं
पुराने धागों को,
जो किसी काम के नहीं।
कितनी भी सलवटें निकाल लूं
किन्तु ,तहों के निशान
अक्सर जाते नहीं।
क्यों होता है मेरे साथ ऐसा,
कहना कुछ और चाहती हूं
कह कुछ और जाती हूं।
बात आज की है,
और कल की बात कहकर
कहानी को पलट जाती हूं,
कि कहीं कोई
समझ न ले मेरे मन को,
मेरे आज को
या मेरे बीते कल को ।
शायद इसीलिए
उलट-पलट जाती हूं।
कहना कुछ और चाहती हूं,
कह कुछ और जाती हूं।
यह सिलसिला
‘गर ज़िन्दगी भर चलेगा,
तो कहां तक, और कब तक ।
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अरे अपने भीतर जांच
शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है
इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है
तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच
है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं
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क्या होगा वक्त के उस पार
वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,
खुशियां हैं वक्त के इस पार।
दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,
आवागमन है वक्त के इस पार।
कल किसने देखा है,
कौन जाने क्या होगा,
क्यों सोच में डूबे,
आज को जी लेते हैं,
क्यों डरें,
क्या होगा वक्त के उस पार।
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सुविधानुसार रीतियों का पालन कर रहे हैं
पढ़ा है ग्रंथों में मैंने
कृष्ण ने
गोकुलवासियों की रक्षा के लिए
अतिवृष्टि से उनकी सुरक्षा के लिए
गोवर्धन को
एक अंगुली पर उठाकर
प्रलय से बचाया था।
किसे, क्यों हराया था,
नहीं सोचेंगे हम।
विचारणीय यह
कि गोवर्धन-पूजा
प्रतीक थी
प्रकृति की सुरक्षा की,
अन्न-जल-प्राणी के महत्व की,
पर्यावरण की रक्षा की।
.
आज पर्वत दरक रहे हैं,
चिन्ता नहीं करते हम।
लेकिन
गोबर के पर्वत को
56 अन्नकूट का भोग लगाकर
प्रसन्न कर रहे हैं।
पशु-पक्षी भूख से मर रहे हैं।
अति-वृष्टि, अल्प-वृष्टि रुकती नहीं।
नदियां प्रदूषण का भंडार बन रही हैं।
संरक्षण नहीं कर पाते हम
बस सुविधानुसार
रीतियों का पालन कर रहे हैं।
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आंखों में लरजते कुछ सपने देखो
न चूड़ियां देखो, न मेंहदी
न साज-श्रृंगार।
बस, आंखों में लरजते
कुछ सपने देखो।
कुछ पीछे छूट गये ,
कुछ बनते, कुछ सजते
कुछ वादे कुछ यादें।
आधी ज़िन्दगी
इधर थी, आधी उधर है।
पर, सपनों की गठरी
इक ही है।
कुछ बांध लिए, कुछ छिन लिए
कुछ पैबन्द लगे, कुछ गांठ पड़ी
कुछ बिखर गये , कुछ नये बुने
कुछ नये बने।
फिर भी सपने हैं, हैं तो, अपने हैं
कोई देख नहीं पायेगा
इस गठरी को, मन में है।
सपने हैं, जैसे भी हैं
हैं तो बस अपने हैं।
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होलिका दहन की कथा: मेरी समझ मेरी सोच
एक अजीब-सा भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं अर्थ कुछ और निकाल लेती हूं।
जब होली का पर्व आता है तो हमें मस्ती सूझती है, रंग-रंगोली की याद आती है, हंसी-ठिठोली की याद आती है, राधा-कृष्ण की होली की मस्ती भरी कथाओं की बात होती है, इन्द्रधनुषी रंग सजने लगते हैं, मिठाईयों और पकवानों की सुगन्ध से घर महकने लगते हैं। यद्यपि होली का सम्बन्ध कृषि से भी है किन्तु हम लोग क्योंकि कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए नहीं हैं अत: होली के पर्व को इस रूप में नहीं देखते।
किन्तु मुझे केवल उस होलिका की याद आती है जो अपने बड़े भाई हिरण्यकशिपु के आदेशानुसार प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई थी और जल मरी थी। उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे ओढ़ने से वह आग से नहीं जल सकती थी, किन्तु उस समय हवा चली और चुनरी उड़ गई। इसका कारण यह बताया जाता है कि होलिका को चुनरी अच्छे कार्य करने के लिए मिली थी, किन्तु वह बुरा कार्य कर रही थी इसलिए चुनरी उड़ी और होलिका जल मरी।
ये चुनरियां क्यों उड़ती हैं ? चुनरियां कब-कब उड़ती हैं
अब देखिए बात होली की चल रही थी और मुझे चुनरी की याद आ गई और वह भी उड़ने वाली चुनरी की । अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं। जब भी चुनरी की बात उठती है, मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है, और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई वरदानमयी चुनरी । शायद वैसी ही कोई चुनरी जो हम कन्याओं का पूजन करके उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं। किन्तु कभी देखा है आपने कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां और कैसे कैसे उड़ जाती है। शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां इतने आम हो चुके हैं कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो चुनरी की और होलिका की चुनरी की कर रही थी और मैं होनी-अनहोनी की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की ओर
इस कथा से जोड़कर होली को बुराई पर अच्छाई, अधर्म पर धर्म एवं असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक-स्वरूप भी मनाया जाता है। अधिकांश ग्रंथों एवं पाठ्य- पुस्तकों में होलिका को बुराई का प्रतीक बताकर प्रस्तुत किया जाता है। होली से एक दिन पूर्व होलिका-दहन किया जाता है। यदि इस होलिका-दहन पर्व को मनाने की विधि को हम सीधे शब्दों में लिखें तो हम होली से एक दिन पूर्व एक कन्या की हत्या का प्रतीक-स्वरूप एक उत्सव मनाते हैं। मेरी दृष्टि में यह उत्सव लगभग वैसा ही है जैसे कि दशहरे के अवसर पर रावण-दहन का उत्सव।
होलिका की बात मेरे लिए स्त्री-पुरूष रूप में नहीं है, केवल इतना है कि हमारी सोच एक ही तरह से क्यों चलती है? प्रह्लाद को तो नहीं मरना था, उसे तो हिरण्यकशिपु ने और भी बहुत बार मारने का प्रयास किया था किन्तु वह नहीं मरा था, तो इस बार भी नहीं मरा। किन्तु ये पौराणिक कथाएं वर्तमान में क्या बन चुकी हैं मुझे तो नहीं पता। होलिका एक छोटी सी बालिका थी। बुरा तो हिरण्यकशिपु था, मेरी समझ में होलिका का तो एक अस्त्र के रूप में उसने प्रयोग किया था।
और एक अन्य बात यह कि मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म-अधर्म, बुराई-अच्छाई, स्त्री-पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।
होलिका-दहन के अवसर पर उपले जलाने की भी परंपरा है। गाय के गोबर से बने उपलों के मध्य में छेद होता है जिसमें मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात उपले होते हैं। होली में आग लगाने से पूर्व इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घुमा कर फेंक दिया जाता है। रात्रि को होलिका-दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। जिससे यह माना जाता है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए। अर्थात बहन की चिता में भाईयों की बुरी नज़र उतारी जाती है।
इस कथा की किस रूप में व्याख्या की जाये ?
होलिका के पास एक वरदानमयी चुनरी थी जिसे पहनकर उसे आग नहीं जला सकती थी। किन्तु वह एक अत्याचारी, बुरे भाई की बहिन थी जिसने राजाज्ञा का पालन किया था। उसकी आयु क्या थी ? क्या वह जानती थी भाई के अत्याचारों, अन्याय को अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को और अपने वरदान या श्राप को। पता नहीं । क्या वह जानती थी कि उसके बड़े भाई ने उसे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने के लिए क्यों कहा है ? यदि वह राजाज्ञा का पालन नहीं करती तब भी मरती और पालन किया तो भी मरी।
किन्तु वह भी बुरी थी इसी कारण उसने भाई की आज्ञा का पालन किया। अग्नि देवता आगे आये थे प्रह्लाद की रक्षा के लिए। किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये, और होलिका जल मरी। वैसे भी चुनरी की ओर ध्यान ही कहां जाता है, हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां। और हम ! हमारे लिए एक पर्व हो जाता है। एक औरत जलती है उसकी चुनरी उड़ती है और हम आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।
जिस दिन होलिका जली थी उस दिन बुराई का अन्त नहीं हुआ था, हिरण्यकशिपु उस दिन भी जीवित ही था, केवल होलिका जली थी, जिसके जलने की खुशी में हम होली मनाते हैं। फिर वह दिन बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक कैसे बन गया ? क्या केवल इसलिए कि एक निरीह कन्या जल मरी क्योंकि उसने भाई की राजाज्ञा का पालन किया था, जो सम्भवत: प्रत्येक वस्तुस्थति से अनभिज्ञ थी। और यदि जानती भी तो भी क्यों ।
होलिका-दहन एवं होली के पर्व में मैं कभी भी एकरूपता नहीं समझ पाई।
अब आग तो बस आग होती है जलाती है और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है। अब देखिए न, अग्नि देव सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर, पवित्र बताया था उसे। और राम ने अपनाया था। किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी , घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर। फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण। और वह समा गई थी धरा में एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से और आपने रोका नहीं मुझे।
यह भी जानती हूं कि एेसे प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं होते क्योंकि हम कोई प्रश्न करते ही नहीं, उत्तर चाहते ही नहीं, बस अच्छे-से निभाना जानते हैं, फिर वह अर्थहीन हो अथवा सार्थक !!
मैंने अपने आलेख में चुनरी का एक अन्य प्रतीक के रूप में भी प्रयोग करने का प्रयास किया है किन्तु सम्भवतः वह प्रतीक धर्म.अधर्म, बुराई.अच्छाई, स्त्री.पुरूष के चिन्तन के बीच उभर ही नहीं पाया।
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उल्लू बोला मिठू से
उल्लू बोला मिठू से
चल आज नाम बदल लें
तू उल्लू बन जा
और मैं बनता हूँ तोता,
फिर देखें जग में
क्या-क्या होता।
जो दिन में होता
गोरा-गोरा,
रात में होता काला।
मैं रातों में जागूँ
दिन में सोता
मैं निद्र्वंद्व जीव
न मुझको देखे कोई
न पकड़ सके कोई।
-
आजा नाम बदल लें।
-
फिर तुझको भी
न कोई पिंजरे में डालेगा,
और आप झूठ बोल-बोलकर
तुझको न बोलेगा कोई
हरि का नाम बोल।
-
चल आज नाम बदल लें
चल आज धाम बदल लें
कभी तू रातों को सोना
कभी मैं दिन में जागूँ
फिर छानेंगे दुनिया का
सच-झूठ का कोना-कोना।
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अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
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नियति
जन्म होता है
मरने के लिए।
लड़कियां भी
जन्म लेती हैं
मरने के लिए।
अर्थात्
जन्म लेकर
मरना है
हर लड़की को।
फिर, जब
मरना तय है
तो क्या फ़र्क पड़ता है
कि वह
किस तरह मरे।
कल की मरती
आज मरे।
कल का क्लेश
आज कटे।
जलकर मरे
या डूबकर मरे।
या पैदा होने से
पहले ही मरे।
जब जन्म होता ही
मरने के लिए है
तो जल्दी जल्दी मरे।
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हैं तो सब इंसान ही
एक असमंजस की स्थिति में हूं।
शब्दों के अर्थ
अक्सर मुझे भ्रमित करते हैं।
कहते हैं
पर्यायवाची शब्द
समानार्थक होते हैं,
तब इनकी आवश्यकता ही क्या ?
इंसान और मानव से मुझे,
इंसानियत और मानवीयता का बोध होता है।
आदमी से एक भीड़ का,
और व्यक्ति से व्यक्तित्व,
एकल भाव का।
.
शायद
इन सबके संयोग से
यह जग चलता है,
और तब ईश्वर यहीं
इनमें बसता है।