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चांद से छिटककर चांदनी धरा पर है चली आई
पगली-सी डोलती, देखो कहां कहां है घूम आई
देख-देखकर चांदनी को तारे खिल-खिल हंस रहे
रवि की आहट से डर,फिर चांद के पास लौट आई
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घुमक्कड़ हो गया है मन
घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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और हम हल नहीं खोजते
बाधाएं-वर्जनाएं
यूं ही बहुत हैं जीवन में।
पहले तो राहों में
कांटे बिछाये जाते थे
और अब देखो
जाल बिछाये जा रहे हैं
मकड़जाल बुने जा रहे हैं
दीवारें चुनी जा रही हैं
बाढ़ बांधी जा रही है
कांटों में कांटे उलझाये जा रहे हैं।
कहीं हाथ न बढ़ा लें
कोई आस न बुन लें
कोई विश्वास न बांध लें
कहीं दिल न लगा लें
कहीं राहों में फूल न बिछा दें
ये दीवारें, बाधाएं, बाढ़, मकड़जाल,
कांटों के नहीं अविश्वास के है
हमारे, आपके, सबके भीतर।
चुभते हैं,टीस देते हैं,नासूर बनते हैं
खून रिसता है
अपना या किसी और का।
और हम
चिन्तित नहीं होते
हल नहीं खोजते,
आनन्दित होते हैं।
पीड़ा की भी
एक आदत हो जाती है
फिर वह
अपनी हो अथवा परायी।
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भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
भाईयों को भारी पड़ती थी मां।
पता नहीं क्यों
भाईयों से डरती थी मां।
मरने पर कौन देगा कंधा
बस यही सोचा करती थी मां।
जीते-जी रोटी दी
या कभी पिलाया पानी
बात होती तो टाल जाती थी मां।
जो कुछ है घर में
चाहे टूटा-फूटा या उखड़ा-बिखरा
सब भाइयों का है,
कहती थी मां।
बेटा-बेटा कहती फ़िरती थी
पर आस बस
बेटियों से ही करती थी मां।
राखी-टीके बोझ लगते थे
लगते थे नौटंकी
क्या रखा है इसमें
कहते थे भाई ।
क्या देगी, क्या लाई
बस यही पूछा करते थे भाई।
पर दुनिया कहती थी
बेचारे होते हैं वे भाई
जिनके सिर पर होता है
अविवाहित बहनों का बोझा
इसी कारण शादी करने
से डरती थी मैं।
मां-बाप की सेवा करना
लड़कियों का भी दायित्व होता है
यह बात समझाते थे भाई
लेकिन घर पर कोई अधिकार नहीं
ये भी बतलाते थे भाईA
एक दूर देश में चला गया
एक रहकर भी तो कहां रहा।
सोचा करती थी मैं अक्सर
क्या ऐसे ही होते हैं भाई।
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गूगल गुरू घंटाल
कम्प्यूटर जी गुरू हो गये, गूगल गुरू घंटाल
छात्र हो गये हाई टैक, गुरू बैठै हाल-बेहाल
नमन करें या क्लिक करें, समझ से बाहर बात
स्मार्ट बोर्ड, टैबलैट,पी सी, ई पुस्तक में उलझे
अपना ज्ञान भूलकर, घूम रहे, ले कंधे बेताल
आॅन-लाईन शिक्षा बनी यहाँ जी का जंजाल
लैपटाॅप खरीदे नये-नये, मोबाईल एंड््रायड्
गूगल बिन ज्ञान अधूरा यह ले अब तू जान
गुरुओं ने लिंक दिये, नैट ने ले लिए प्राण
रोज़-रोज़ चार्ज कराओ, बिल ने ले ली जान
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बांसुरी अब भावशून्य हो गई
कृष्ण तेरी बांसुरी अब
भावशून्य हो गई।
राधा तेरे नृत्य की गति भी
कहीं खो गई।
छोड़ अब ये रास लीला,
प्रेम मनुहार की बातें।
चक्र उठा,
कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की
भीड़ भारी हो गई।
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बेटियाँ धरा पर
माता-पिता तो
देना चाहते हैं
आकाश
अपनी बेटियों को
किन्तु वे
स्वयं ही
नहीं जान पाते
कब
उन्होंने
अपनी बेटियों के
सपनों को
आकाश में ही
छोड़ दिया
और उन्हें
उतार लाये
धरा पर
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जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है
कहते हैं
जीवन संघर्ष का
दूसरा नाम है।
किन्तु जीवन
बस
संघर्ष ही बना रहे
कभी समर या
संग्राम न बनने दें।
कहने को तो
पर्यायवाची शब्द हैं
किन्तु जब
जीवन में उतरते हैं
तब
सबका अर्थ बदल जाता है
इसलिए सावधान रहें।
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जीवन के रंग
द्वार पर आहट हुई,
कुछ रंग खड़े थे
कुछ रंग उदास-से पड़े थे।
मैंने पूछा
कहां रहे पूरे साल ?
बोले,
हम तो यहीं थे
तुम्हारे आस-पास।
बस तुम ही
तारीखें गिनते हो,
दिन परखते हो,
तब खुशियां मनाते हो
मानों प्रायोजित-सी
हर दिन होली-सा देखो
हर रात दीपावली जगमगाओ
जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।
हां, जीवन के रंग बहुत हैं
कभी ग़म, कभी खुशी
के संग बहुत हैं,
पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा
बस जीवन में
रंगों की हर आहट पकड़ो।
हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा
हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।
बस
मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।
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बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
अभियान ज़ोरों पर है।
विज्ञापनों में भरपूर छाया है
जिसे देखो वही आगे आया है।
भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं
लोग इस हेतु
घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,
मोमबत्तियां जला रहे हैं।
लेकिन क्या सच में ही
बदली है हमारी मानसिकता !
प्रत्येक नवजात के चेहरे पर
बालक की ही छवि दिखाई देती है
बालिका तो कहीं
दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।
इस चित्र में एक मासूम की यह छवि
किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है
तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।
कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।
एक साधारण बालिका की चाह तो
हमने कब की त्याग दी है
अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा
की भी बात नहीं करते।
कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी
अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।
पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल
को तो हम जानते ही नहीं
कि कहें
कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।
कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास
अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।
शायद आपको लग रहा होगा
मैं विषय-भ्रम में हूं।
जी नहीं,
इस नवजात को मैं भी देख रही हूं
एक चमकते सितारे की तरह
रोशनी से भरपूर।
किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं
कि इस चित्र में सबको
एक नवजात बालक की ही प्रतीति
क्यों है
बालिका की क्यों नहीं।
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शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।