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चतुर सुजान पिछले युग के
सुजान
कहीं पीछे छूटे
चतुर-चतुर यहां बचे
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क्रांति
क्रांति उस चिड़िया का नाम है
जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।
पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही
उसके पंख काट देना चाहती है।
लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।
जब वह उड़ना सीख जाती है
तो पुरानी पीढ़ी
उसके लिए,
एक सोने का पिंजरा बनवाती है
और यह कहकर उसे कैद कर लेती है
कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।
यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।
वर्षों बाद
जब वह उड़ना भूल जाती है
तो पिंजरा खोल दिया जाता है
क्योंकि
अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है
और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है
इसलिए उसे बेच दिया जाता हे
नया लोहे का लिया जाता है
जिसमें नई पीढ़ी को
इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है
आजीवन
कि उसने हमें खत्म करने,
मारने का षड्यन्त्र रचा था
हत्या करनी चाही थी हमारी।
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मुझे तो हर औरत दिखाई देती है
तुम सीता हो या सावित्री
द्रौपदी हो या कुंती
अहिल्या हो या राधा-रूक्मिणी
मैं अक्सर पहचान ही नहीं पाती।
सम्भव है होलिका, अहिल्या,
गांधारी, कुंती, उर्मिला,
अम्बा-अम्बालिका हो।
या नीता, गीता
सुशीला, रमा, शमा कोई भी हो।
और भी बहुत से नाम
स्मरण आ रहे हैं मुझे
किन्तु मैं स्वयं भी
किसी असमंजस में नहीं
पड़ना चाहती,
और न ही चाहती हूं
कि तुम सोचने लगो,
कि इसकी तो बातें
सदैव ही अटपटी-होती हैं
उलझी-उलझी।
तुम्हें क्या लगता है
कौन है यह?
सती-सावित्री?
मुझे तो हर औरत
दिखाई देती है इसके भीतर
सदैव पति के लिए
दुआएं मांगती,
यमराज के आगे सिर झुकाकर
अपनी जीवन देकर ।
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मन में बोनसाई रोप दिये हैं
विश्वास का आकाश
आज भी उतना ही विस्तारित है
जितना पहले हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है
कि हमने, अपने मन में बसे
पीपल, वट-वृक्ष को
कांट-छांट कर
बोनसाई रोप दिये हैं,
और हर समय खुरपा लेकर
जड़ों को खोदते रहते हैं,
कहने को निखारते हैं,
सजाते-संवारते हैं,
किन्तु, वास्तव में
अपनी ही कृति पर अविश्वास करते हैं।
तो फिर किसी और से कैसी आशा।
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बूंदे गिरतीं
बादल आये, वर्षा लाये।
बूंदे गिरतीं,
टप-टप-टप-टप।
बच्चे भागे ,
छप-छप-छप-छप।
मेंढक कूदे ,
ढप-ढप-ढप-ढप।
बकरी भागी, कुत्ता भागा।
गाय बोली मुझे बचाओ
भीग गई मैं
छाता लाओ, छाता लाओ।
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मैं करती हूं दुआ
धूप-दीप जलाकर, थाल सजाकर,
मां को अक्सर देखा है मैंने ज्योति जलाते।
टीका करते, सिर झुकाते, वन्दन करते,
पिता को देखा है मैंने आरती उतारते।
हाथ जोड़कर, आंख मूंदकर देखा है मैंने
भाई-बहनों को आरती गाते
मां कहती है सबके दुख-दर्द मिटा दे मां
पिता मांगते सबको बुद्धि, अन्न-धन दे मां
भाई-बहन शिक्षा का आशीष मांगे
और सब करते मेरे लिए दुआ।
मां, पिता, भाई-बहनों की बातें सुनती हूं
आज मैं भी करती हूं तुमसे इन सबके लिए दुआ।
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बाल-मन की बात
हाथ जोड़कर तुम क्या मांग रहे मुझको कुछ भी नहीं पता
बैठा था गर्मी की छुट्टी की आस में, क्या की थी मैंने खता
मैं तो बस मांगूं एक टी.वी., एक पी.सी, एक आई फोन 6
और मांगू, गुम हो जाये चाबी स्कूल की, और मेरा बस्ता
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तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए
लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए
तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें
नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए
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ज़िन्दगी के गीत
ज़िन्दगी के कदमों की तरह
बड़ा कठिन होता है
सितार के तारों को साधना।
बड़ा कठिन होता है
इनका पेंच बांधना।
यूँ तो मोतियों के सहारे
बांधी जाती हैं तारें
किन्तु ज़रा-सा
ढिलाई या कसाव
नहीं सह पातीं
जैसे प्यार में ज़िन्दगी।
मंद्र, मध्य, तार सप्तक की तरह
अलग-अलग भावों में
बहती है ज़िन्दगी।
तबले की थाप के बिना
नहीं सजते सितार के सुर
वैसे ही अपनों के साथ
उलझती है जिन्दगी
कभी भागती, कभी रुकती
कभी तानें छेड़ती,
राग गाती,
झाले-सी दनादन बजती,
लड़ती-झगड़ती
मन को आनन्द देती है ज़िन्दगी।
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छटा निखर कर आई
शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई
तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई
बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,
पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई
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सरकार यहां पर सोती है
पत्थरों को पूजते हैं, इंसानियत सड़कों पर रोती है।
बस मन्दिर खुलवा दो, मौत सड़कों पर होती है।
मेहनतकश मज़दूरों को देख-देखकर दिल दहला है।
चुप रहना, शोर न करना, सरकार यहां पर सोती है।