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घुमक्कड़ हो गया है मन
बिन पूछे बिन जाने
न जाने
निकल जाता है कहां कहां।
रोकती हूं, समझाती हूं
बिठाती हूं , डराती हूं, सुलाती हूं।
पर सुनता नहीं।
भटकता है, इधर उधर अटकता है।
न जाने किस किस से जाकर लग जाता है।
फिर लौट कर
छोटी छोटी बात पर
अपने से ही उलझता है।
सुलगता है।
ज्वालामुखी सा भभकता है।
फिर लावा बहता है आंखों से।
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झूठ का ज़माना है
एक अर्थहीन रचना
सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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सजन रे झूठ मत बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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झूठ का ज़माना है
सच को क्यों आजमाना है
इधर की उधर कर
उधर की इधर कर
बस ऐसे ही नाम कमाना है
सच में अड़ंगे हैं
इधर-उधर हो रहे दंगे हैं
झूठ से आवृत्त करो
मन की हरमन करो,
नैनों की है बात यहां
टिम-टिम देखो करते
यहां-वहां अटके
टेढ़े -टेढ़े भटके
किसी से नैन-मटक्के
कहीं देख न ले सजन
बिगड़ा ये ज़माना है
किसे –किसे बताना है
कैसे किसी को समझाना है
छोड़ो ये ढकोसले
क्यों किसी को आजमाना है
-
झूठ बोलो, झूठ बोलो
कौन बोला, कौन बोला
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ज़िन्दगी कोई गणित नहीं
ज़िन्दगी
जब कभी कोई
प्रश्नचिन्ह लगाती है,
उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।
यह बात
हम समझ ही नहीं पाते।
किसी न किसी गणित में उलझे
अपने-आपको महारथी समझते हैं।
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स्वप्न हों साकार
तुम बरसो, मैं थाम लूं मेह की रफ्तार
न कहीं सूखा हो न धरती बहे धार धार
नदी, कूप, सर,निर्झर सब हों अमृतमय
शस्यश्यामला धरा पर स्वप्न हों साकार
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एक आदमी मरा
एक आदमी मरा।
अक्सर एक आदमी मरता है।
जब तक वह जिंदा था
वह बहुत कुछ था।
उसके बार में बहुत सारे लोग
बहुत-सी बातें जानते थे।
वह समझदार, उत्तरदायी
प्यारा इंसान था।
उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।
या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।
पत्नी को पीटता था।
उसकी कमाई पर ऐश करता था।
बच्चे पैदा करता था।
पर बच्चों के दायित्व के नाम पर
उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।
वह आदमी एक औरत का पति था।
वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,
उसका बिस्तर बिछाती थी,
और बिछ जाती थी।
उस आदमी के मरने पर
पांच सौ आदमी
उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।
वे सब थे, जो उसके बारे में
कुछ भी जानते थे।
वे सब भी थे
जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे
किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे
में कुछ जानते थे।
कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे
लेकिन फिर भी वहां थे।
उन पांच सौ लोगों में
एक भी ऐसा आदमी नहीं था,
जिसे उसके मरने का
अफ़सोस न हो रहा हो।
लेकिन अफ़सोस का कारण
कोई नहीं बता पा रहा था।
अब उसकी लाश ले जाने का
समय आ गया था।
पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।
श्मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते
बस कुछ ही लोग बचे थे।
लाश जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।
एक आदमी मरा। एक औरत बची।
पता नहीं वह कैसी औरत थी।
अच्छी थी या बुरी
गुणी थी या कुलच्छनी।
पर एक औरत बची।
एक आदमी से
पहचानी जाने वाली औरत।
अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।
दो अच्छे बच्चों की
या फिर हरामी पिल्लों की मां।
अभी तक उस औरत के पास
एक आदमी का नाम था।
वह कौन था, क्या था,
अच्छा था या बुरा,
इससे किसी को क्या लेना।
बस हर औरत के पीछे
एक अदद आदमी का नाम होने से ही
कोई भी औरत
एक औेरत हो जाती है।
और आदमी के मरते ही
औरत औरत न रहकर
पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।
-
अब उस औरत को
एक नया आदमी मिला।
क्या फर्क पड़ता है कि वह
चालीस साल का है
अथवा चार साल का।
आदमी तो आदमी ही होता है।
उस दिन हज़ार से भी ज़्यादा
आदमी एकत्र थे।
एक चार साल के आदमी को
पगड़ी पहना दी गई।
सत्ता दी गई उस आदमी की
जो मरा था।
अब वह उस मरे हुए आदमी का
उत्तरााधिकारी था ,
और उस औरत का भी।
उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए
औरत का रंगीन दुपट्टा
और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।
-
एक आदमी मरा।
-
नहीं ! एक औरत मरी।
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अपने भीतर झांक
नदी-तट पर बैठ
करें हम प्रलाप
हो रहा दूषित जल
क्या कर रही सरकार।
भूल गये हम
जब हमने
पिकनिक यहां मनाई थी
कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें
यहीं जल में बहाईं थीं
कचरा-वचरा, बचा-खुचा
छोड़ वहीं पर
मस्ती में
हम घर लौटे थे।
साफ़-सफ़ाई पर
किश्तीवाले को
हमने खूब सुनाई थी।
फिर अगले दिन
नदियों की दुर्दशा पर
एक अच्छी कविता-कहानी
बनाई थी।
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर
जीवन में सारे काम
सदा
जल्दबाज़ी से नहीं होते।
कभी-कभी
प्रतीक्षा के दो पल
बड़े लाभकारी होते हैं।
बिगड़ी को बना देते हैं
ठहरी हुई
ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।
समझाया था तुम्हें
पर तुम्हारा
अंहकार हावी रहा
मेरे वादों पर।
मैंने कब इंकार किया था
कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा
जीवन की राहों में।
हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता
एक विश्वास की झलक भी
अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।
किन्तु
तुम्हारा अंहकार हावी रहा,
मेरे वादों पर।
अब न सुनाओ मुझे
कि मैं अकेले ही चलता रहा।
ये चयन तुम्हारा था।
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नयन क्यों भीगे
मन के उद्गारों को कलम उचित शब्द अक्सर दे नहीं पाती
नयन क्यों भीगे, यह बात कलम कभी समझ नहीं पाती
धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में
इतनी सी बात क्यों इस पगले मन को समझ नहीं आती