घाट-घाट का पानी
शहर में
चूहे बिल्लियों को सुला रहे हैं
कानों में लोरी सुना रहे हैं।
उधर जंगल में गीदड़ दहाड़ रहे हैं।
शेर-चीते पिंजरों में बन्द
हमारा मन बहला रहे हैं।
पढ़ाते थे हमें
शेर-बकरी
कभी एक घाट पानी नहीं पीते,
पर आज
एक ही मंच पर
सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे हैं।
यह भी पता नहीं लगता
कब कौन सो जायेगा]
और कौन लोरी सुनाएगा।
अब जहां देखो
दोस्ती के नाम पर
नये -नये नज़ारे दिखा रहे हैं।
कल तक जो खोदते थे कुंए
आज साथ--साथ
घाट-घाट का
पानी पीते नज़र आ रहे हैं।
बच कर चलना ऐसी मित्रता से
इधर बातों ही बातों में
हमारे भी कान काटे जा रहे हैं।