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कम्प्यूटर जी गुरू हो गये, गूगल गुरू घंटाल
छात्र हो गये हाई टैक, गुरू बैठै हाल-बेहाल
नमन करें या क्लिक करें, समझ से बाहर बात
स्मार्ट बोर्ड, टैबलैट,पी सी, ई पुस्तक में उलझे
अपना ज्ञान भूलकर, घूम रहे, ले कंधे बेताल
आॅन-लाईन शिक्षा बनी यहाँ जी का जंजाल
लैपटाॅप खरीदे नये-नये, मोबाईल एंड््रायड्
गूगल बिन ज्ञान अधूरा यह ले अब तू जान
गुरुओं ने लिंक दिये, नैट ने ले लिए प्राण
रोज़-रोज़ चार्ज कराओ, बिल ने ले ली जान
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अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
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निःस्वार्थ था उनका बलिदान
ये वे नाम हैं
जिन्हें हम स्मरण करते हैं
बस किसी एक दिन,
उनकी वीरता, साहस,
देश भक्ति और बलिदान।
विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,
स्वाधीन, महान भारत का सपना
हमें देकर गये।
निःस्वार्थ था उनका बलिदान
वे केवल जानते थे
हमारा भारत महान
और हर नागरिक समान।
** ** ** **
देशभक्ति क्या होती है
क्या होता है बलिदान,
काश! हम समझ पाते।
तो आज
न बहता सड़कों पर रक्त
न पूछते हम जाति
न करते किसी धर्म-अधर्म की बात
न पत्थर चिनते,
न दीवारें बनाते,
बस इंसानियत को जीते
और इंसानियत को समझते।
किसी ने कहा था
अच्छा हुआ
आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं
नहीं तो वे
सच को इस तरह सड़कों पर
मरता देख बहुत रोते।
अच्छा हुआ
इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,
वे हमारी सोच देख
सच में ही मर जाते।
** ** ** **
ऐसा क्या हुआ
कि हम
इन्हें अपने भीतर
ज़िन्दा नहीं रख पाये।
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राख पर किसी का नाम नहीं होता
युद्ध की विभीषिका
देश, शहर
दुनिया या इंसान नहीं पूछती
बस पीढ़ियों को
बरबादी की राह दिखाती है।
हम समझते हैं
कि हमने सामने वाले को
बरबाद कर दिया
किन्तु युद्ध में
इंसान मारने से
पहले भी मरता है
और मारने के बाद भी।
बच्चों की किलकारियाँ
कब रुदन में बदल जाती हैं
अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं
हम समझ ही नहीं पाते।
और जब तक समझ आता है
तब तक
इंसानियत
राख के ढेर में बदल चुकी होती है
किन्तु हम पहचान नहीं पाते
कि यह राख हमारी है
या किसी और की।
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बेटियाँ धरा पर
माता-पिता तो
देना चाहते हैं
आकाश
अपनी बेटियों को
किन्तु वे
स्वयं ही
नहीं जान पाते
कब
उन्होंने
अपनी बेटियों के
सपनों को
आकाश में ही
छोड़ दिया
और उन्हें
उतार लाये
धरा पर
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चुन लूं मकरन्द
इन रंगों को
मुट्ठी में बांध लूं
महक को मन में उतार लूं
सौन्दर्य इनका
किसी के गालों पर दमक रहा
कहीं नयनों में छलक रहा
शब्दों में, भावों में
कुछ देखो दमक रहा
अभिलाषाओं का
सागर बहक रहा
चुन लूं मकरन्द
किसी तितली के संग
संवार लूं ज़िन्दगी का हर पल
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कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
मन से
अपनी राहों पर चलती हूं
दूर तक छूटे
अपने ही पद-चिन्हों को
परखती हूं
कहत हैं रेत से घर नहीं बनते
नहीं छूटते रेत पर निशान,
सागर पलटता है
और सब समेट ले जाता है
हवाएं उड़ती हैं और
सब समतल दिखता है,
किन्तु भीतर कितने उजड़े घर
कितने गहरे निशान छूटे हैं
कौन जानता है,
कहीं गहराई में
भीतर ही भीतर पलते
छूटे चिन्ह
कुछ पल के लिए
मन में गहरे तक रहते हैं
कौन चला, कहां चला, कहां से आया
कौन जाने
यूं ही, एक भटकन है
निरखती हूं, परखती हूं
लौट-लौट देखती हूं
पर बस अपने ही
निशान नहीं मिलते।
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रसते–बसते घरों में खुशियां
रसते–बसते घरों में खुशियां चकले-बेलने की ताल पर बजती हैं।
मां रोटी पकाती है, घर महकता है, थाली-कटोरी सजती है।
देर शाम घर लौटकर सब साथ-साथ बैठते, हंसते-बतियाते,
निमन्त्रण है तुम्हें, देखना घर की दीवारें भी गुनगुनाने लगती हैं।
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जो रीत गया वह बीत गया
चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो
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कौन किसी का होता है
पत्थर संग्रहालयों में सुरक्षित हैं जीवन सड़कों पर रोता है
अरबों-खरबों से खेल रहे हम रुपया हवा हो रहा होता है
किसकी मूरत, किसकी सूरत, न पहचानी, बस नाम दे रहे
बस शोर मचाए बैठे हैं, यहाँ अब कौन किसी का होता है
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कहां जानती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम
बढ़ती है ज़िन्दगी।
कभी आकाश
तो कभी पाताल
नापती है ज़िन्दगी।
पंछी-सा
उड़ान भरता है कभी मन,
तो कभी
रंगीनियों में खेलता है।
कब उठेंगे बवंडर
और कब फंसेंगे भंवर में,
यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।
यूं तो
साहस बहुत रखते हैं
आकाश छूने का
किन्तु नहीं जानते
कब धरा पर
ला बिठा देगी ज़िन्दगी।